देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट_भाग-१५

 !!८!! श्री नारद जी ने कहा_____एक दिन की बात है मेरी मां गौ दुहने के लिए रात के समय घर से बाहर निकली रास्ते में उसके पैर से सांप छू गया उसने उस बेचारी को डस लिया उस सांप का क्या दोष काल की ऐसी ही प्रेरणा थी !

श्रीमद्भागवत


!!९!! मैंने समझा भक्तों का मग्ड़ल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चला पड़ा !


!!१०!! उस ओर मार्ग में मुझे अनेकों धन धान्य से संपन्न देश नगर गांव अहीरों की चलती फिरती बस्तियां खाने खेड़े नदी और पर्वतों के तटवर्ती पहाड़ वाटिकाएं वन उपवन और रंग बिरंगी धातुओं से युक्त विचित्र पर्वत दिखाई पड़े कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे जिसकी बड़ी-बड़ी शाखाएं हाथियों ने तोड़ डाली थी शीतल जल से भरे हुई जलाशय  थे जिनमें देवताओं के काम में आने वाले कमल थे उन पर पक्षी तरह तरह की बोली बोल रहे थे और भौंरे मंडरा रहे थे यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा मैं अकेला ही था इतना लम्बा मार्ग तै करने पर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा उसमें नरकट बांस सेंठा कुश कीचक आदि खड़े थे उसकी लंबाई चौड़ाई भी बहुत थी और वह सांप उल्लू स्यार आदि भयंकर जीवों का घर हो रहा था देखने में बड़ा भयावना  लगता था !


!!११_१४!! चलते-चलते मेरा शरीर और इंद्रियां शिथिल हो गयी मुझे बड़े जोर की प्यास लगी भूखा तो था ही वहां एक नदी मिली उसके कुण्ड में मैंने स्नान जलपान और आचमन  किया इससे मेरी थकावट मिट गयी !


!!१५!! उस विजन वन में एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया उन महात्माओं से जैसा मैंने सुना था ह्रदय में रहने वाले परमात्मा के उसी स्वरूप का मैं मन ही मन ध्यान करने लगा !


!!१६!! भक्ति भाव से वशीकृत चित्त द्वारा भगवान के चरण कमलों का ध्यान करते ही भगवत प्राप्ति की उत्कट लालसा से मेरे नेत्रों में आंसू छलछला आये और ह्रदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये !


!!१७!! व्यास जी उस समय प्रेम भाव के अत्यंत उद्रेकसे  मेरा रोम रोम पुलकित हो उठा हृदय अत्यंत शांत और शीतल हो गया उस आनन्दकी बाढ़ में मैं ऐसा डूब गया कि मुझे अपना और ध्येय वस्तु का तनिक भी भान न रहा !


!!१८!! भगवान का वह अनिर्वचनीय रूप समस्त शोकों का नाश करने वाला और मन के लिए अत्यंत लुभावना था सहसा उसे न देख मैं बहुत ही विकल हो गया और अनमना सा होकर आसन से उठ खड़ा हुआ!


!!१९!! मैंने उस स्वरूप का दर्शन फिर करना चाहा किंतु मन को ह्रदय में समाहित करके बार बार दर्शन की चेष्टा करने पर भी मैं उसे नहीं देख सका मैं अतृप्त के समान आतुर हो उठा !


!!२०!! इस प्रकार निर्जन वन में मुझे प्रयत्न करते देख स्वयं भगवान ने जो वाणी के विषय नहीं है बड़ी गंभीर और मधुर वाणी से मेरे शोक को शांत करते हुए से कहा !


!!२१!! खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे जिनकी वासनाएं पूर्णतया शांत नहीं हो गयी है उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यंत दुर्लभ है !


!!२२!! निष्पाप बालक तुम्हारे ह्रदय में मुझे प्राप्त करने की लालसा जाग्रत करने के लिए ही मैंने एक बार तुम्हें अपने  रूप की झलक दिखाई है मुझे प्राप्त करने की अकाक्ष्ड़ा से युक्त साधक धीरे-धीरे हृदय की संपूर्ण वासनाओं का भली-भांति त्याग कर देती है !


!!२३!! अल्पकालीन संतसेवा से ही तुम्हारी चित्त वृत्ति मुझमें स्थिर हो गई है अब तुम इस प्राकृत मलिन शरीर को छोड़कर मेरे पार्षद हो जाओगे !


!!२४!! मुझे प्राप्त करने का तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा समस्त सृष्टि का प्रलय हो जानेपर भी मेरी कृपा से तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी!


!!२५!! आकाश के समान  अव्यक्त सर्वशक्तिमान महान परमात्मा इतना कह कर चुप हो रहे उनकी इस कृपा का अनुभव करके मैंने उन श्रेष्ठों से  भी श्रेष्ठतर भगवान को सिर झुका कर प्रणाम किया !


!!२६!! तभी से मैं लज्जा संकोच छोड़कर भगवान के अत्यंत रहस्यमय और मग्ड़लमय  मधुर नामों और लीलाओं का कीर्तन और स्मरण करने लगा स्पृहा और मद मत्सर मेरे हृदय से पहले ही नेवृत्त हो चुके थे अब मैं आनंद से कॉल की प्रतीक्षा करता हुआ पृथ्वी पर विचर ने  लगा !


!!२७!! व्यास जी इस प्रकार भगवान की कृपा से मेरा हृदय शुद्ध हो गया आसक्ति मिट गयी और मैं श्री कृष्णा परायण हो गया कुछ समय बाद जैसे एकाएक बिजली कौंध जाती है वैसे ही अपने समयपर मेरी मृत्यु आ गयी !


!!२८!!  मुझे शुद्ध  भगवत्पार्षद शरीर प्राप्त होने का अवसर आने पर प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाने के कारण पाञ्चभौतिक शरीर नष्ट हो गया !


!!२९!! कल्प के अंत में जिस समय भगवान नारायण एक र्णव  (प्रलय कालीन समुद्र) के जल में शयन करते हैं उस समय उनके हृदय में शयन करने की इच्छा से इस सारी सृष्टि को समेटकर ब्रह्मा जी जब प्रवेश करने लगे तब उनके श्रास के साथ मैं भी उनके हृदय में प्रवेश कर गया !


!!३०!! एक सहस्त्र चतुर्युगी बीत जाने पर जब ब्रह्मा जगे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की तब उनकी इंद्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया !


!!३१!! तभी से मैं भगवान की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूं मेरे जीवन का व्रत भगवद्भजन  अखण्डरूप से चलता रहता है !


!!३२!! भगवान की दी हुई इस स्वरब्रह्म से  विभूषित वीणा पर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओं का गान करता हुआ सारे संसार में विचरता हूं !


!!३३!! जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूं तब वे प्रभु जिनके चरण कमल समस्त तीर्थों के  उन्दम स्थान है और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है बुलाये है  हूए की भांति तुरन्त मेरे हृदय में आकर दर्शन दे देते हैं !


!!३४!! जिन लोगों का चित्त निरन्तर विषय भोगों की कामना से आतुर हो रहा है उनके लिए भगवान की लीलाओं का कीर्तन संसार सागर से पार जाने का जहाज है यह मेरा अपना अनुभव है !


!!३५!! काम और लोभ की चोट से बार-बार घायल हुआ ह्रदय श्री कृष्ण सेवा से जैसी प्रत्यक्ष शांति का अनुभव करता है यम नियम आदि योग मार्गों से वैसी शांति नहीं मिल सकती !


!!३६!! व्यास जी आप निष्पाप है आपने मुझसे जो  कुछ पूछा था वह सब अपने जन्म और साधना का रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टि का उपाय मैंने बतला दिया !


!!३७!! श्री सूत जी कहते हैं____शौनकादि ऋषियो देवर्षि नारद ने व्यास जी से इस प्रकार कहकर जाने की अनुमति ली और वीणा बजाते हुए स्वच्छंद विचरण करने के लिए वे चल पड़े !


!!३८!! अहां ये देवर्षि नारद धन्य है क्योंकि ये  शार्ग्ड पाणि भगवान की कीर्ति को अपनी वीणा पर गा गाकर  स्वयं तो आनन्द मग्र होते ही हैं साथ-साथ इस त्रितापतप्त जगत को भी आनन्दित करते रहते हैं !


!!३९!! श्री शौनक जी ने पूछा___ सूतजी सर्वज्ञ एवं सर्वशक्ति मान व्यास भगवान ने नारद जी का अभिप्राय सुन लिया फिर उनके चले जाने पर उन्होंने क्या किया !


!!१!! श्री सूत जी ने कहा____ब्रह्मनदी सरस्वती के पश्चिम तट पर शम्याप्रास नामक एक आश्रम है वहां ऋषियो के यज्ञ चलते ही रहते हैं !


!!२!! वहीं व्यास जी का अपना आश्रम है उसके चारों ओर बेरका सुंदर वन है उस आश्रम में बैठकर उन्होंने आचमन किया और स्वयं अपने मन को समाहित किया !


!!३!! उन्होंने भक्ति योग के द्वारा अपने मन को पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके  आदिपुरुष परमात्मा और उनके आश्रय से रहने वाली माया को देखा !


!!४!! इसी माया से मोहित होकर यह जीव तीनों गुणों से अतीत होने पर भी अपने को त्रिगुणात्मक मान लेता है और इस मान्यता के कारण होने वाले अन अर्थों को भोगता है !


!!५!! इन अर्थों की शांति का साक्षात साधन है केवल भगवान का भक्ति योग परंतु संसार के लोग इस बात को नहीं जानते यही समझ कर उन्होंने इस परमहंसों की संहिता श्रीमद्भागवत की रचना की !


!!६!! इसके श्रवणमात्र से पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण के प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है जिससे जीव के शोक मोह और भय नष्ट हो जाते हैं !


!!७!! उन्होंने इस भागवत संहिता का निर्माण और पूनरावृत्ति करके इसे अपने निवृत्ति परायण पुत्र श्री सुकदेव जी को पढ़ाया !


!!८!! श्री शौनक जी ने पूछा____श्री शुकदेव जी तो अत्यन्त निवृत्ति परायण हैं उन्हें किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है वे सदा आत्मा में ही रमण करते हैं फिर उन्होंने किसलिए इस विशाल ग्रंथ का अध्ययन किया!


!!९!! श्री सूत जी ने कहा____जो लोग ज्ञानी हैं जिनकी अविद्या की गांठ खुल गयी है और जो सदा आत्मा में ही रमण करने वाले हैं वे भी भगवान की हेतु रहित भक्ति किया करते हैं क्योंकि भगवान के गुण ही ऐसे मधुर हैं जो सब को अपनी ओर खींच लेते हैं !


!!१०!! फिर सुकदेव जी तो भगवान के भक्तों के अत्यंत प्रिय और स्वयं भगवान वेदव्यास के पुत्र हैं भगवान के गुणों ने उनके हृदय को अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे विवश होकर ही इस विशाल ग्रंथ का अध्ययन किया !


!!११!! शौनक जी अब मैं राजर्षि परीक्षित के जन्म कर्म और मोक्ष की तथा पाण्डवों के  स्वर्गा रोहण की कथा कहता हूं क्योंकि इन्हीं से भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों कथाओं का उदय होता है !












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