मेरे प्रकट होने को न देवता जानते हैं और न महर्षि क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का आदि हूं !
जो मनुष्य मुझे अजन्मा अनादि और संपूर्ण लोकों का महान ईश्वर जानता है अर्थात दृढ़ता से (संदेह रहित) स्वीकार कर लेता है वह मनुष्यों में ज्ञानवान है और वह संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है !
बुद्धि ज्ञान असम्मोह क्षमा सत्य दम शम तथा मुख दुःख उत्पत्ति विनाश भय अभय और अहिंसा समता संतोष तप दान यश और अपयश प्राणियों के ये अनेक प्रकार के अलग-अलग (बीस) भाव मुझसे ही होते हैं !
सात महर्षि और उनसे भी पहले होने वाले चार सनकादि तथा चौदह मनु ये सब के सब मेरे मन से पैदा हुए हैं और मुझ में भाव (श्रद्धा भक्ति) रखने वाले हैं जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है !
जो मनुष्य मेरी इस विभूति को और योग (समथ्र्य) को तत्व से जानता है अर्थात दृढ़ता पूर्वक (सन्देह रहित) स्वीकार कर लेता है वह अविचल भक्ति योग से युक्त हो जाता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है !
मैं संसार मात्र का प्रभव (मूल्य कारण) और मुझसे सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात चेष्टा कर रहा है ऐसा मानकर मुझ में ही श्रद्धा प्रेम रखते हुए बुद्धिमान भक्त मेरा ही भजन करते हैं सब प्रकार से मेरे ही शरण होते हैं !
मुझ में चित्त वाले तथा मुझ में प्राणों को अर्पण करने वाले (भक्तजन) आपस में (मेरे गुण प्रभाव आदि को) जानते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मुझ में ही प्रेम करते हैं !
उन नित्य निरन्तर मुझमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को मैं वह बुद्धि योग देता हूं जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है !
उन भक्तों पर कृपा करने के लिये ही उनके स्वरूप (होने पन) में रहने वाला मैं उनके अज्ञान जन्य अन्धकार को देदीप्यमान ज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूं !
अर्जुन बोले____परम ब्रह्म परम धाम और महान पवित्र आप ही हैं आप शाश्वत दिव्य पुरुष आदि देव अजन्मा और सर्वव्यापक है ऐसा आपको सब के सब ऋषि देवर्षि नारद असित देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं !
हे केशव मुझसे आप जो कुछ कह रहे हैं यह सब मैं सत्य मानता हूं हे भगवान आपके प्रकट होने को न तो देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं !
हे भूत भावन हे भूतेश हे देव देव हे जगत्पते हे पुरुषोत्तम आप स्वयं ही अपने आपसे अपने आप को जानते हैं !
इसलिये जिन विभूतियों से आप इन सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं उन सभी अपनी दिव्य विभूतियों का सम्पूर्णता से वर्णन करने में आप ही समर्थ है !
हे योगिन निरन्तर सांगो पांग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानू और हे भगवन किन किन भावों में आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात किन किन भावों में मैं आपका चिन्तन करूं !
हे जनार्दन आप अपने योग (सामर्थ्य) को और विभूतियों को विस्तार से फिर कहिये क्योंकि आप के अमृत मय वचन सुनते सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है !
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श्री भगवान बोले____ हां ठीक है मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये प्रधानता से (संक्षेप से) कहूंगा क्योंकि हे कुरुक्षेष्ठ मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है !
हे नींद को जीतने वाले अर्जुन संपूर्ण प्राणियों के आदि मध्य तथा अन्त मैं ही हूं और संपूर्ण प्राणियों के अंतः करण (ह्रदय) में स्थित आत्मा भी मैं ही हूं !
मैं अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) और प्रकाश मान वस्तुओं में किरणों वाला सूर्य हूं मैं मरुतों का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूं !
मैं वेदों में सामवेद हूं देवताओं में इंद्र हूं इंद्रियों में मन हू और प्राणियों की चेतना हूं !
रूद्रों में शंकर और यक्ष राक्षसों में कुबेर मैं हूं वसुओं में पवित्र करने वाली अग्नि और शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु मैं हूं !
हे पार्थ पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो सेनापतियों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूं !
महर्षियों में भृगु और वाणियों (शब्दों) में एक अक्षर अर्थात प्रणव मैं हूं सम्पूर्ण यज्ञों में जप यज्ञ और स्थित रहने वालों में हिमालय मैं हूं !
सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल देवर्षियों में नारद गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूं !
घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होने वाले उच्चै श्रवा नामक घोड़े को श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी को और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मानो !
आयुधों में वज्र और धेनुओं में हूं कामधेनु मैं हूं सन्तान उत्पति का हेतु कामदेव मैं हूं और सर्पों में वासु कि मैं हूं !
नागों में अनन्त (शेषनाग) और जल जन्तुओं का अधिपति वरुण मैं हूं पितरों में अर्यमा और (शासन) करने वालों में यमराज मैं हूं !
दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों (ज्योतिषियों) में काल मैं हूं तथा पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं हूं !
पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्र धारियों में राम मैं हूं जल जंतुओं में मगर मैं हूं और नदियों में गंगा जी मैं हूं !
हे अर्जुन संपूर्ण सृष्टियों के आदि मध्य तथा अन्त मैं ही हूं विद्याओं में अध्यात्मविद्या (ब्रह्मविद्या) और परस्पर शास्त्रार्थ करने वालों का (तत्त्व निर्णय के) लिये किया जाने वाला वाद मैं हूं !
अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व समास मैं हूं अक्षय काल अर्थात काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुख वाला धाता (सबका पालन पोषण करने वाला भी मैं ही हूं !
सब का हरण करने वाली मृत्यु और भविष्य में उत्पन्न होने वाला मैं हूं तथा स्त्री जाति में कीर्ति श्री वाक (वाणी) स्मृति मेधा धृति और क्षमा मैं हूं !
गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम और सब छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूं बारह महीनों में मार्ग शीर्ष और छः ऋतुओं में वसन्त मैं हूं !
छल करने वालों में जूआ और तेजस्वियों में तेज मैं हूं (जीतने वालों की) विजय मैं हूं (निश्चय करने वालों का) निश्चय और सात्त्विक मनुष्यों का सात्त्विक भाव मैं हूं !
वृष्णिवंशियों में वसुदेव पुत्र श्री कृष्ण और पाण्डवों में अर्जुन मैं हूं मुनियों में वेदव्यास और कवियों में कवि शुक्राचार्य भी मैं हूं !
दमन करने वालों में दण्डनीति और विजय चाहने वालों में नीति मैं हूं गोपनीय भावों में मौन मैं हूं और ज्ञान वानों में ज्ञान मैं ही हूं !
और हे अर्जुन सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज (मूल कारण) है वह बीज भी मैं ही हूं क्योंकि वह चर अचर कोई प्राणी नहीं है जो मेरे बिना हो अर्थात चर अचर सब कुछ मैं ही हूं !
हे परन्तप अर्जुन मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है मैंने (तुम्हारे सामने अपनी) विभूतियों का जो विस्तार कहा है यह तो केवल संक्षेप से नाम मात्र कहा है !
जो जो भी ऐश्वर्य युक्त शोभा युक्त और बल युक्त प्राणी तथा पदार्थ है उस उसको तुम मेरे ही तेज (योग अर्थात सामर्थ्य) के अंश से उत्पन्न हुआ समझो !
अथवा हे अर्जुन तुम्हें इस प्रकार बहुत सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूं अर्थात अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में है !
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