!!११!! नारद जी ने कहा____ वह निर्मल ज्ञान भी जो मोक्ष की प्राप्ति साक्षात साधन है यदि भगवान की भक्ति से रहीत हो तो उतनी शोभा नहीं होती फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओं में सदा ही अमग्ड़लरुप है वह काम्य कर्म और जो भगवान को अर्पण नहीं किया गया है ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है !
!!१२!! महा भाग व्यास जी आपकी दृष्टि अमोघ है आपकी कीर्ति पवित्र है आप सत्यपरायण एवं दृढ़व्रत है इसलिए अब आप सम्पूर्ण जीवों को बन्धनसे मुक्त करने के लिए समाधि के द्वारा अचिन्त्य शक्ति भगवान की लीलाओं का स्मरण किजिए !
!!१३!! जो मनुष्य भगवान की लीला के अतिरिक्त और कुछ कहने की इच्छा करता है वह उस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर में पड़ जाता है उसकी बुद्धि भेदभाव से भर जाती है जैसे हवा के झकोरों से डगमगाती हुई डोंगी को कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं मिलता वैसे ही उसकी चच्ञल बुद्धि कहीं
भी स्थिर नहीं हो पाती !
!!१४!! संसारी लोग स्वभाव से ही विषयों में फंसे हुए हैं धर्म के नाम पर आपने उन्हें निन्दित (पशुहिंसा युक्त) सकाम कर्म करने की भी आज्ञा दे दी है यह बहुत ही उल्टी बात हुई क्योंकि मूर्ख लोग आपके वचनों से पुर्वोक्त निन्दित कर्म को ही धर्म मानकर यही मुख्य धर्म है ऐसा निश्चय करके उसका निषेध करने वाले वचनों को ठीक नहीं मानते !
!!१५!! भगवान अनन्त है कोई विचार वान ज्ञानी पुरुष ही संसार की ओर से निवृत्त होकर उनके स्वरूप भूत परमानन्द का अनुभव कर सकता है अतः जो लोग पारमार्थिक बुद्धि से रहित हैं और गुणों के द्वारा नचाये जा रहे हैं उनके कल्याण के लिए ही आप भगवान की लीलाओं का सर्वसाधारण के हित की दृष्टि से वर्णन कीजिए !
!!१६!! जो मनुष्य अपने धर्म का परित्याग करके भगवान के चरण कमलों का भजन सेवन करता है भजन परिपक्क हो जाने पर तो बात ही क्या है यदि इससे पूर्व ही उसका भजन छूट जाय तो क्या कहीं भी उसका कोई अमग्ड़ल हो सकता है परन्तु जो भगवान का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्म का पालन करते हैं उन्हें कौन सा लाभ मिलता है !
!!१७!! बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह उसी वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करें जो तिन केसे लेकर ब्रह्मापर्यन्त समस्त ऊंची नीची योनियों में कर्मों के फलस्वरूप आने जाने पर भी स्वयं प्राप्त नहीं होती संसार के विषय सुख तो जैसे बिना चेष्टा के दुःख मिलते हैं वैसे ही कर्म के फल रूप में अचिन्त्य गीत समय के फेरसे से सबको सर्वत्र स्वभाव से ही मिल जाते हैं !
!!१८!! व्यास जी जो भगवान श्री कृष्ण के चरणारविन्द का सेवक है वह भजन न करने वाले कर्मीं मनुष्यों के समान दैवात कभी बुरा भाव हो जाने पर भी जन्म मृत्यु मय संसार में नहीं आता वह भगवान के चरण कमलों के आलिग्ड़न का स्मरण करके फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता; उसे रस का चसका जो लग चुका है !
!!१९!! जिनसे जगत की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय होते हैं वे भगवान ही इस विश्व के रूप में भी हैं ऐसा होने पर भी वे इससे विलक्षण है इस बात को आप स्वयं जानते हैं तथापि मैंने आपको संकेत मात्र कर दिया है !
!!२०!! व्यास जी आपकी दृष्टि अमोघ है आप इस बात को जानिये कि आप पुरुषोत्तम भगवान के कला वतार हैं आपने अजन्मा होकर भी जगत के कल्याण के लिए जन्म ग्रहण किया है इसलिए आप विशेष रूप से भगवान की लीलाओं का कीर्तन कीजिए !
!!२१!! विद्वानों ने इस बात का निरूपण किया है कि मनुष्य की तपस्या वेदाध्ययन यज्ञानुष्ठान स्वाध्याय ज्ञान और दान का एक मात्र प्रयोजन यही है कि पुण्य कीर्ति श्री कृष्ण के गुणों और लीलाओं का वर्णन किया जाए !
!!२२!! मुने पिछले कल्प में अपने पूर्वजी वन में मैं वेदवादी ब्राह्मणों की एक दासी का लड़का था वे योगी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर चातुर्मास्य कर रहे थे बचपन में ही मैं उनकी सेवा में नियुक्त कर दिया गया था !
!!२३!! मैं यद्यपि बालक था फिर भी किसी प्रकार की चच्ञलता नहीं करता था जितेंद्रीय था खेल कूद से दूर रहता था और आज्ञानुसार उनकी सेवा करता था मैं बोलता भी बहुत कम था मेरे इस शील स्वभाव को देखकर समदर्शी मुनियों ने मुझ सेवक पर अत्यन्त अनुग्रह किया
!!२४!! उनकी अनुमति प्राप्त करके बरतनों में लगा हुआ जूंठन मैं एक बार खा लिया करता था इससे मेरे सारे पाप धुल गए इस प्रकार उनकी सेवा करते करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन पूजन करते थे उसी में मेरी भी रूचि हो गयी !
!!२५!! प्यारे-व्यास जी उस सत्सग्ड़ में उन लीला गान परायण महात्माओं के अनुग्रह से मैं प्रतिदिन श्री कृष्ण की मनोहर कथाएं सुना करता श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते करते प्रिय कीर्ति भगवान में मेरी रुचि हो गयी !
!!२६!! महा मुने जब भगवान में मेरी रुचि हो गयी तब उन मनोहर कीर्ति प्रभु में मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी उस बुद्धि से मैं इस सम्पूर्ण सत् और असत रुप जगत् को अपने परब्रह्मस्वरूप आत्मा में माया कल्पित देखने लगा !
!!२७!! इस प्रकार शरद और वर्षा इन दो कि ऋतुओं में तीनों समय उन महात्मा मुनियों ने श्री हरि के निर्मल यश का सक्ड़र्तन किया और मैं प्रेम से प्रत्येक बात सुनता रहा अब चित्त के रजोगुण और तमोगुण को नाश करने वाली भक्ति का मेरे हृदय में प्रादुर्भाव हो गया !
!!२८!! मैं उनका बड़ा ही अनुरागी था विनयी था उन लोगों की सेवा से मेरे पाप नष्ट हो चुके थे मेरे हृदय में श्रद्धा थी इंद्रियों में संयम था एवं शरीर वाणी और मन से मैं उनका आज्ञाकारी था !
!!२९!! उस दीनवत्सल महात्माओं ने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्यतम ज्ञान का उपदेश किया जिसका उपदेश स्वयं भगवान ने अपने श्री मुख से किया है !
!!३०!! उस उपदेश से ही जगत के निर्माता भगवान श्री कृष्ण माया के प्रभाव को मैं जान सका जिसके जान लेने पर उनके परम पद की प्राप्ति हो जाती है !
!!३१!! सत्य संकल्प व्यास जी पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण प्रति समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ही संसार के तीनों तापों एकमात्र ओषधि है यह बात मैंने आपको बतला दी !
!!३२!! प्राणियों को जिस पदार्थ के सेवन से जो रोग हो जाता है वही पदार्थ चिकित्सा विधि के अनुसार प्रयोग करने पर क्या उस रोग को दूर नहीं करता !
!!३३!! इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्यों को जन्म मृत्यु रूप संसार के चक्र में डालने वाले हैं तथापि जब वे भगवान को समर्पित कर दिये जाते हैं तब उनका कर्म पना ही नष्ट हो जाता है !
!!३४!! इस लोक में जो शास्त्र विहित कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिये किए जाते हैं उन्हीं से पराभक्ति युक्त ज्ञान की प्राप्ति होती है !
!!३५!! उस भगवदर्थ कर्म के मार्ग में भगवान के आज्ञा नुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान श्रीकृष्ण के गुण और नामों का कीर्तन तथा स्मरण करते हैं !
!!३६!! प्रभो आप भगवान श्री वासुदेव को नमस्कार है हम आपका ध्यान करते हैं प्रद्युम्न अनिरुद्ध और संकर्षण को भी नमस्कार है !
!!३७!! इस प्रकार जो पुरुष चतुवर्यूह रूपी भगव न्मूर्तियोंं के नाम द्वारा प्राकृत मूर्ति रहित अप्राकृत मन्त्रमूर्ति भगवान यज्ञपुरुष का पूजन करता है उसी का ज्ञान पूर्ण एवं अथार्थ है !
!!३८!! ब्राह्मन जब मैंने भगवान की आज्ञा का इस प्रकार पालन किया तब इस बात को जानकर भगवान श्री कृष्ण मुझे आत्मज्ञान ऐश्वर्य और अपनी भाव रूपा प्रेमा भक्ति का दान किया !
!!३९!! व्यास जी आपका ज्ञान पूर्ण है आप भगवान की ही कीर्ति का उनकी प्रेम मयी लीला का वर्णन कीजिए उसी बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी जिज्ञासा पूर्ण होती है जो लोग दु:खों के द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं उनके दुःख की शांति इसी से हो सकती है और कोई उपाय नहीं है !
!!४०!! श्री सूत जी कहते हैं____शौनकजी देवर्षि नारद के जन्म और साधना की बात सुनकर सत्यवती नन्दन भगवान श्री व्यास जी ने उनसे फिर यह प्रश्न किया !
!!१!! श्री व्यास जी ने पूछा___नारद जी जब आपको ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मा गण चले गए तब आपने क्या किया उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी !
!!२!! स्वायम्भुव आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्यु के समय आपने किस विधि से अपने शरीर का परित्याग किया !
!!३!! देवर्षे काल तो सभी वस्तुओं को नष्ट कर देता है उसने आपकी इस पूर्व क्ल्पकी स्मृति का कैसे नाश नहीं किया !
!!४!! श्री नारद जी ने कहा____मुझे ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण जब चले गए तब मैंने इस प्रकार आपना जीवन व्यतीत किया यद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी !
!!५!! मैं अपनी मां का इकलौता लड़का था एक तो वह स्त्री थी दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था उसके अपने को मेरे स्न्त्रेहपाश से जकड़ रखा था !
!!६!! वह मेरे योगक्षेम की चिंता तो बहुत करती थी परंतु पराधीन होने के कारण कुछ कर नहीं पाती थी जैसे कठपुतली नचाने वाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है !
!!७!! मैं भी अपनी मां के स्त्रेह बन्धन में बंध कर उस ब्राह्मण बस्ती में ही रहा मेरी अवस्था केवल पांच वर्ष की थी मुझे दिशा देश और काल के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था !
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