देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट-भाग-१३

 !!४३-४५!!व्यास जी कहते हैं_____उस दीर्घकालीन सूत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्यावयों वृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनक जी ने सूत जी की पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा 

श्रीमद्भागवत


!!१!! शौनक जी बोले____सूत जी आप वक्ताओं में श्रेष्ठ है तथा बड़े भाग्य शाली है जो कथा भगवान श्री शुकदेव जी ने कही थी वही भगवान की पुण्य मरी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये !


!!२!! वह कथा किस युग में किस स्थान पर और किस कारण से हुई थी मुनिवर श्री कृष्ण द्वैपायन ने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिता का निर्माण किया था !


!!३!! उनके पुत्र सुकदेव जी बड़े योगी समदर्शी भेदभाव रहित संसार निद्रा से जगे एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मा में ही स्थित रहते हैं वे छिपे रहने के कारण मूढ़ से प्रतीत होते हैं !


!!४!! व्यास जी जब संन्यास के लिए वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे उस समय जल में स्त्रान करने वाली स्त्रियों ने नंगे सुकदेव को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया परंतु वस्त्र पहने हुए व्यास जी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिए थे इस आश्चर्य को देखकर जब व्यास जी ने उस स्त्रियों से इसका कारण पूछा तब उन्होंने उत्तर दिया कि आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है परंतु आपके पुत्र की शुद्ध दृष्टि में यह भेद नहीं है !


!!५!! कुरुजाग्ड़ल देश में पहुंच कर हस्तिनापुर में वे पागल गूंगे तथा जडके समान विचरते होंगे नगर वासियों ने उन्हें कैसे पहचाना !


!!६!! पाण्डव नन्दन  राजर्षि परीक्षित का इन मौनी शुकदेव जी के साथ संवाद कैसे हुआ जिसमें यह भागवत संहिता कही गयी !


!!७!! माहा भाग श्रीशुकदेव जी तो गृह स्थों के घरों को तीर्थ स्वरूप बना देने के लिए उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रहते हैं जितनी देर में एक गाय दुही जाती है !


!!८!! सूत जी हमने सुना है कि अभिमन्यु नन्दन परीक्षित भगवान के बड़े प्रेमी भक्त थे उनके अत्यंन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मों का भी वर्णन किजिए !


!!९!! वे तो पाण्डव वंश के गौरव बढ़ाने वाले सम्राट थे वे भला किस कारण से साम्राज्य लक्ष्मी का परित्याग करके गग्ड़ातट पर मृत्यु र्यन्त अनशन का व्रत लेकर बैठे थे !


!!१०!! शत्रु गण अपने भले के लिए बहुत साधन लाकर उनके चरण रखने की चौकी को नमस्कार करते थे वे एक वीर युवक थे उन्होंने उस दृस्त्यज लक्ष्मी को अपने प्राणों के साथ भला क्यों त्याग देने की इच्छा की !


!!११!! जिन लोगों का जीवन भगवान के आश्रित है वे तो संसार के परम कल्याण अभ्युदय और समृद्धि के लिए ही जीवन धारण करते हैं उनमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता उनका शरीर तो दूसरों के हित के लिए था उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया !


!!१२!! वेद वाणी को छोड़कर अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान हैं सूत जी इसलिए इस समय जो कुछ हमने आपसे पूछा है वह सब कृपा करके हमें कहिए !


!!१३!! सूतजी ने कहा____ इस वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग द्वापर में  महर्षि पराशर के द्वारा वसु कन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान के कलावतार योगीराज व्यास जी का जन्म हुआ !


!!१४!! एक दिन वे सूर्योदय के समय सरस्वती के पवित्र जल में स्त्रानादि करके एकान्त पवित्र स्थान पर बैठे हुए थे !


!!१५!! महर्षि भूत और भविष्य को जानते थे उनकी दृष्टि अचूक थी उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते ऐसे समय के फेर से प्रत्येक युग में धर्म सक्ड़रता और उसके प्रभाव से भौतिक वस्तुओं की भी शक्ति का ह्रास होता रहता है संसार के लोग श्रद्धा हीन और शक्ति रहित हो जाते हैं उनकी बुद्धि कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है लोगों की इस भाग्य हीनता को देखकर उन मुनीश्वर ने अपनी दिव्य दृष्टि से समस्त वर्णों और आश्रमों का  हित कैसे हो इस पर विचार किया !


!!१६-१८!! उन्होंने सोचा की वेदोक्त चातुर्होत्र कर्म लोगों का ह्रदय शुद्ध करने वाला है इस दृष्टि से यज्ञों का विस्तार करने के लिए उन्होंने एक ही वेद के चार विभाग कर दिए !


!!१९!! व्यास जी के द्वारा ऋक यजु: साम और अथर्व इन चार वेदों का उद्धार (पृथक्करण) हुआ इतिहास और पुराणों को पांचवां वेद कहा जाता है !


!!२०!! उनमें से ऋग्वेद के पैर साम गान के विद्वान जैमिनि एवं यजुर्वेद के एकमात्र स्त्रातक वैशम्पायन हुए !


!!२१!! अथर्व वेद में प्रवीण हुए दरूण नन्दन सुमन्तु मुनि इतिहास और पुराणों के स्त्रातक मेरे पिता रोमहर्षण थे !


!!२२!! इन पूर्वोक ऋषियों ने अपनी अपनी शाखा को और भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया इस प्रकार शिष्य प्रशिष्य और उनके शिष्यों द्वारा वेदों की बहुत सी शाखाएं बन गई !


!!२३!! कम समझवाले  पुरुषों पर कृपा करने  भगवान वेदव्यास ने इसलिए ऐसा विभाग कर दिया कि जिन लोगों को स्मरण शक्ति नहीं है या कम है वे भी वेदों को धारण कर सकें !


!!२४!! स्त्री शुद्र और पतित द्विजाति__तीनों ही वेद श्रवण के अधिकारी नहीं है इसलिये वे कल्याणकारी शास्त्रोक्त कर्मों के आचरण में भूल कर बैठते हैं अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाए यह सोचकर महामुनि व्यासजी ने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहास 

की रचना की !


!!२५!! शौनकदि ऋषियो यद्यपि व्यासजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्ति से सदा सर्वदा प्राणियों के कल्याण में ही लगे रहे तथापि उनके ह्रदय को सन्तोष नहीं हुआ !


!!२६!! उनका मन कुछ खिन्न सा हो गया सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर धर्म वेत्ता व्यास जी मन ही मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे !


!!२७!! मैंने निष्कपट भाव से ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए वेद गुरुजन और अग्रियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञा का पालन किया है!


!!२८!! महाभारत की रचना के बहाने मैंने वेद के अर्थको खोल दिया जिससे स्त्री शूद्र आदि भी अपने अपने धर्म कर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं !


!!२९!! यद्यपि मैं ब्रह्मतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूं तथापि मेरा हृदय कुछ अपूर्ण काम सा जान पड़ता है !


!!३०!! अवश्य ही अब तक मैंने भगवान को प्राप्त कराने वाले धर्मों का प्रायः निरूपण नहीं किया है वे ही धर्म परमहंसों को प्रिय है और वे ही भगवान को भी प्रिय है (हो-न-हो मेरी अपूर्ण ताका यही कारण है)


!!३१!! श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास इस प्रकार अपने को अपूर्ण सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे उसी समय पूर्वोक्त  आश्रम पर देवर्षि नारद जी आ पहुंचे !


!!३२!! उन्हें आया देख व्यास जी तुरन्त खड़े हो गए उन्होंने देवताओं के द्वार सम्मानित देवर्षि नारद की विधि पूर्वक पूजा की !


!!३३!! सूत जी कहते हैं____तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणा पाणि परम यशस्वी देवर्षि नारद ने मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रह्मर्षि व्यासजी से कहा !


!!१!! नारद जी ने प्रश्न किया____महाभाग व्यास जी आपके शरीर एवं मन दोनों ही अपने कर्म एवं चिन्तन से  सन्तुष्ट हैं न !


!!२!! अवश्य ही आपकी जिज्ञासा तो भली-भांति पूर्ण हो गयी है क्योंकि आपने जो यह महाभारत की रचना की है वह बड़ी ही अद्भुत है वह धर्म आदि सभी पुरुषार्थों से परिपूर्ण है !


!!३!! सनातन ब्रह्मातत्त्व को भी आपने खूब विचारा है और जान भी लिया है फिर भी प्रभु आप अकृतार्थ पुरुष के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं !


!!४!! व्यास जी ने कहा____आपने मेरे विषय में जो कुछ कहा है वह सब ठीक ही वैसा होने पर भी मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है पता नहीं इसका क्या कारण है आपका ज्ञान अगाध है आप साक्षात ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं इसलिए मैं आपसे ही इसका कारण पूछता हूं !


!!५!! नारद जी आप समस्त गोपनीय रहस्यों को जानते हैं क्योंकि आपने उन प्राण पुरुष की उपासना की है जो प्रकृति पुरुष दोनों के स्वामी हैं और असग्ड रहते हुए ही अपने सक्डल्पमात्र से गुणों के द्वारा संसार की सृष्टि स्थिति और प्रलय करते रहते हैं !


!!६!! आप सूर्य की भांति तीनों लोकों में भ्रमण करते रहते हैं और योग बल से प्राणवायु के समान सबके भीतर रहकर अन्तः करणों के साक्षी भी है योगा नुष्ठान और नियमों के द्वारा परब्रह्म  और शब्द ब्रह्म दोनों की पूर्व प्राप्ति कर लेने पर भी मुझे में जो बड़ी कमी है उसे आप कृपा करके बतलाइए !


!!७!! नारद जी ने कहा____व्यास जी आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया मेरी ऐसी मान्यता है कि जिस से भगवान संतुष्ट नहीं होते वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है !


!!८!! आपने धर्म आदि पुरुषार्थों का जैसा निरूपण किया है भगवान श्री कृष्ण की महिमा का वैसा निरूपण नहीं किया !


!!९!! जिस वाणी से चाहे वह  रस भाव अलक्डारादि से युक्त ही क्यों न हो जगत को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता वह तो कौओं के लिए उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अपवित्र मानी जाती है मानसरोवर के कमनीय कमल वन में विहरनेवाले हंसों की भांति ब्रह्म धाम में विहार करने वाले भगवच्चरणा रविन्दाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते !


!!१०!! इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दों से युक्त भी है परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान के सुयशसूचक नामों से युक्त है वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश कर देती है क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण गान और कीर्तन किया करते हैं !

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