श्री कृष्ण ने मानव जीवन के लिए क्या कहा


 Smd facts bhagwat puran: श्री भगवान बोले_____ ऊपर की ओर मूल वाले तथा नीचे की ओर शाखा वाले जिस संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को (प्रवाह रूप से) अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं उस संसार वृक्ष को जो जानता है वह सम्पूर्ण वेदों को जानने वाला है।
श्री -कृष्ण -ने -मानव -जीवन- के- लिए- क्या- कहा


उस संसार वृक्ष की गुणों (सत्त्व रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषय रूप कोंपलों वाली शाखाएं नीचे (मध्य में) और ऊपर (सब जगह) फैली हुई है मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बांधने वाले मूल भी नीचे और ऊपर (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं।


इस संसार वृक्ष का जैसा रूप देखने में आता है वैसा यहां (विचार करने पर) मिलता नहीं  क्योंकि इसका न तो आदि है न अन्त है और न स्थिति ही है इसलिये इस दृढ़ मूलों वाले संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असंगता रूप शस्त्र के द्वारा काट कर।


उसके बाद उस परम पद (परमात्मा) की खोज करनी चाहिये जिसको प्राप्त हुए मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिससे अनादि काल से चली आने वाली यह सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है उस आदि पुरुष परमात्मा के ही मैं शरण हूं।


जो (अपनी दृष्टि से) मान और मोह से रहित हो गये हैं जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है जो नित्य निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं जो सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं जो सुख-दु:ख नाम वाले द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं (ऐसे ऊंची स्थिति वाले )मोह रहित साधक भक्त उस अविनाशी परम पद (परमात्मा) को प्राप्त होते हैं।


उस परम पद को न सूर्य न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसार में नहीं आते वही मेरा परम धाम है।


इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा (स्वयं) मेरा ही सनातन अंश है परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पांचों इंद्रियों को आकर्षित करता है  (अपना मान लेता है)


जैसे वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को (ग्रहण करके ले जाती है) ऐसे ही शरीरा दिका  स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है वहां से इन (मन सहित इंद्रियों) को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें चला जाता है।


यह जीवात्मा मनका आश्रय लेकर ही श्रोत्र और नेत्र तथा त्वचा रसना और घाण इन पांचों इंद्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता है।


शरीर को छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा के स्वरूप को मूढ़ मनुष्य नहीं जानते ज्ञान रूपी  नेत्रों वाले (ज्ञानी मनुष्य ही) जानते हैं।


यत्न करने वाले योगी लोग अपने आप में स्थित इस परमात्म तत्व का अनुभव करते हैं परंतु जिन्होंने अपना अन्त: करण शुद्ध नहीं किया है ऐसे अविवेकी  मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्व का अनुभव नहीं करते।


सूर्य को प्राप्त हुआ जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है और जो तेज चंद्रमा में तथा जो तेज अग्नि में है उस तेज को मेरा ही जान।


मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूं और (मैं ही) रस स्वरूप चंद्रमा होकर समस्त ओषधियों (वनस्पतियों) को पुष्ट करता हूं।


प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं प्राण अपान से युक्त वैश्वानर (जठराग्नि) होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं।


मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों हृदय में स्थित हूं तथा मुझसे ही स्मृति ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषों का नाश) होता है सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं वेदों के तत्व का निर्णय करने वाला और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।


इस संसार में क्षर (नाशवान) और अक्षर (अविनाशी) ये दो प्रकार के ही पुरुष है सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर कहा जाता है।


उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण) ही है जो परमात्मा इस नाम से कहा गया है वहीं अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण पोषण करता है।


कारण कि मैं क्षर से अतीत हूं और अक्षर से भी उत्तम हूं इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं।


हे भरतवंशी अर्जुन इस प्रकार जो मोह रहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है वह सर्वज्ञ सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है।


हे निष्पाप अर्जुन इस प्रकार अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है हे भरतवंशी अर्जुन इस को जान कर मनुष्य ज्ञान वान (ज्ञात ज्ञातव्य) तथा कृत कृत्य हो जाता है।

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1 Comments

  1. बहुत बढ़िया भाई बहुत अच्छी जानकारी दी आपने hosting के बारे में हमने भी कुछ लिखा है आप चाहें तो देख सकते हैं Web hosting meaning in hindi

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