हे भरतवंशोद्भव अर्जुन तू सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ और क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है वही मेरे मत में ज्ञान है !
वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिससे जो पैदा हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है वह सब संक्षेप में मुझसे सुन !
यह क्षेत्र क्षेत्रज्ञ तत्त्व ऋषियों द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है तथा वेदों की ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकार से विभाग पूर्वक कहा गया है और युक्ति युक्त एवं निश्चय किये हुए ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है !
मूल प्रकृति और समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व) समष्टि अहंकार पांच महाभूत और दस इन्द्रियां एक मन तथा पांचों इंद्रियां के पांच विषय यही (चौबीस तत्वों वाला) क्षेत्र है !
इच्छा द्वेष सुख-दु:ख संघात (शरीर) चेतना (प्राणशक्ति) और धृति इन विकारों साहित यह क्षेत्र संक्षेप से कहा गया है !
अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना दिखावटी पन न होना अहिंसा क्षमा सरलता गुरु की सेवा बाहर भीतर की शुद्धि स्थिरता और मन का वश में होना !
इंद्रियों के विषयों में बैराग्य का होना अहंकार का भी न होना और जन्म मृत्यु वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःख रूप दोषों को बार बार देखना !
आसक्ति रहित होना पुत्र स्त्री घर आदि में एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का नित्य सम रहना !
मुझ में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन समुदाय में प्रीति का न होना !
अध्यात्म ज्ञान में नित्य निरन्तर रहना तत्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा को सब जगह देखना यह पूर्वोक्त बीस साधन समुदाय) तो ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है ऐसा कहा गया है !
जो ज्ञेय पूर्वोक्त ज्ञान से जानने योग्य) है उस परमात्म तत्त्व को मैं अच्छी तरह से कहूंगा जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है वह ज्ञेय तत्व अनादि वाला और परम ब्रह्म है उसको न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य ही कहा जा सकता है !
वे परमात्मा सब जगह हाथों और पैरों वाले सब जगह नेत्रों सिरों और मुखों वाले तथा सब जगह कानों वाले हैं वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं !
वे परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाले हैं आसक्ति रहित हैं और संपूर्ण संसार का भरण पोषण करने वाले हैं तथा गुणों से रहित है और संपूर्ण गुणों के भोक्ता हैं !
वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर भीतर परिपूर्ण है और चर अचर प्राणियों के रूप में भी वे ही है एवं दूर से दूर तथा नजदीक से नजदीक भी वे ही है और वे अत्यंत सूक्ष्म होने से जानने में नहीं आते !
वे परमात्मा स्वयं विभाग रहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त की तरह स्थित हैं और वे जानने योग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले तथा उन का भरण पोषण करने वाले और संहार करने वाले हैं।
वे परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियों की भी ज्योति और अज्ञान से अत्यंत परे कहे गये हैं वे ज्ञान स्वरूप जानने योग्य ज्ञान से प्राप्त करने योग्य और सबके हृदय में विराजमान है !
इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेप से कहा गया है मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है !
प्रकृति और पुरुष दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों को तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दु:खों के भोक्ता पन में पुरुष हेतु कहा जाता है !
प्रकृति में स्थित पुरुष (जीव) ही प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का संग ही इसके ऊंच नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है !
यह पुरुष (शरीर के साथ सम्बन्ध रखने से) उपद्रष्टा (उसके साथ मिलकर सम्मति अनुमति देने से) अनुमन्ता (अपने को उसका भरण पोषण करने वाला मानने से) भर्ता (उसके संग से सुख दुःख भोगने से) भोक्ता और (अपने को उसका स्वामी मानने से) महेश्वर बन जाता है परन्तु (स्वरूप से) यह पुरुष परमात्मा इस नाम से कहा जाता है यह इस देह में रहता हुआ भी देह से पर (सर्वथा सम्बन्ध रहित) ही है।
इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य (अलग-अलग) जानता है वह सब तरह का बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता !
कई मनुष्य ध्यान योग के द्वारा कई सांख्य योग के द्वारा और कई कर्म योग के द्वारा अपने आप से अपने आप में परमात्म तत्व का अनुभव करते हैं !
दूसरे मनुष्य इस प्रकार (ध्यान योग सांख्य योग कर्म योग आदि साधनों को) नहीं जानते पर दूसरों से जीव न्मुक्त महापुरुषों से) सुनकर ही उपासना करते हैं ऐसे वे सुनने के अनुसार आचरण करने वाले मनुष्य भी मृत्यु को तर जाते हैं।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए समझो।
जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमेश्वर को नाश रहित और सम रूप से स्थित देखता है वही वास्तव में सही देखता है।
क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखने वाला मनुष्य अपने आप से अपनी हिंसा नहीं करता इसलिये वह परम गति को प्राप्त हो जाता है।
जो सम्पूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपने आप को अकर्ता देखता (अनुभव करता) है वही यथार्थ देखता है।
जिस काल में साधक प्राणियों के अलग-अलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है और उस प्रकृति ही उन सब का विस्तार देखता है उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
हे कुन्ती नन्दन यह (पुरुष स्वयं) अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्म स्वरुप ही है यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।
जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता।
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता है ऐसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।
इस प्रकार जो ज्ञान रूपी नेत्रों से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग को तथा कार्य कारण सहित प्रकृति से स्वयं को अलग जानते हैं वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।
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