!१!! श्री सूत जी कहते हैं____उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया तब उनके नाभि-सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापति यों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए !
!!२!! भगवान के उस विराटरूप के अग्ड़- प्रत्यग्ड़ में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है वह भगवान का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है !
!!३!! योगी लोग दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं भगवान का वह रूप हजारों पैर जांघें भुजाएं और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण है उसमें सहस्त्रों सिर हजारों कान हजारों आंखें और हजारों नासिकाएं हैं हजारों मुकुट वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लसित रहता है !
!!४!! भगवान का यही पुरुष रुप जिसे नारायण करते हैं अनेक अवतारों का अक्षर कोष है इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं इस रुप के छोटे से छोटे अंश से देवता पशु पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है !
!!५!! उन्हीं प्रभु ने पहले कौमारसर्ग में सनक सनन्दन सनातन और सनत्कुमार इन चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण करके अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया !
!!६!! दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिए समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सुकररूप ग्रहण किया !
!!७!! ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्र का( जिसे नारद पाञ्च रात्र कहते हैं) उपदेश किया उसमें कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्म बन्धन से मुक्ति मिलती है इसका वर्णन है !
!!८!! धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होंने नर नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया इस अवतार में उन्होंने ऋषि बनकर मन और इंद्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की !
!!९!! पांच वे अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्वों का निर्णय करने वाले संख्या शास्त्र का जो समय के फेरसे लुप्त हो गया था आरसुरि नामक ब्राह्मण को उपदेश किया !
!!१०!! अनसूया के वर मांगने पर छठे अवतार में वे अत्रिकी सन्तान दत्ता त्रेय हुए इस अवतार में उन्होंने अलर्ट एवं प्रह्लाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया !
!!११!! सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पन्ती यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की !
!!१२!! राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवां अवतार ग्रहण किया इस रुप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग जो सभी आश्रमियों के लिए वन्दनीय है दिखाया !
!!१३!! ऋषि यों की प्रार्थना से नवीं बाल वीर आजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुए शौनकादि ऋषियो इस अवतार में उन्होंने पृथ्वी से समस्त औषधियों का दोहन किया था इससे यह अवतार सबके लिए बड़ा ही कल्याण कारी हुआ !
!!१४!! चाक्षुष मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डुब रही थी तब उन्होंने मत्स्य के रूप में दसवां अवतार ग्रहण किया और पृथ्वी रूपी नौका पर बैठा कर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की !
!!१५!! जिस समय देवता और दैत्य समुद्र मन्थन कर रहे थे उस समय ग्यारहवां अवतार धारण करके कच्छपरुप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया
!!१६!! बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया !
!!१७!! चौदह वें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यंत बलवान दैत्य राज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखोंसे अनायास इस प्रकार फाड़ डाली जैसे चटाई बनानेवाला सींक को चीर डालता है !
!!१८!! पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गए वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य परन्तु मांगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी !
!!१९!! सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गए हैं तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शुन्य कर दिया!
!!२०!! इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्य वती के गर्भ से पराशर जी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए उस समय लोगों की समझ और धारणा शक्ति कम देखकर आपने वेद रूप वृक्षकी कई शाखाएं बना दी !
!!२१!! अठारहवी बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतु बन्धन रावण वध आदि वीरता पूर्ण बहुत सी लीलाएं की !
!!२२!! उन्नीस वेऔर बीस वें अवतार रोंमें उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा !
!!२३!! उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिए अजन के पुत्ररुप में आपका बुद्धावतार होगा
!!२४!! इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे तब जगत् के रक्षक भगवान् विष्णु यश नामक ब्राह्मण के घर
कल्किरुप में अवतीर्ण होंगे !
!!२५!! शौनकादि ऋषियो जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्री हरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं !
!!२६!! ऋषि मनु देवता प्रजापति मनु पुत्र और जितने भी महान शक्तिशाली वे सब के सब भगवान के ही अंश हैं !
!!२७!! ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार है परंतु भगवान श्री कृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही है जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं तब युग युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं !
!!२८!! भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय रहस्यमयी है जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियम पूर्वक सायक्ड़ाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है वह सब दु:खों से छूट जाता है !
!!२९!! प्राकृत स्वरुप रहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है यह उनकी माता के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान् में ही कल्पित है !
!!३०!! जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसरपना धूल में होता है परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बाद लोंका आकाश में और धूसर पनेका वायु में आरोप करते हैं वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्य रुप जगत् का आरोप करते हैं !
!!३१!! इस स्थूल रूप से परे भगवान का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है जो न तो स्थूल की तरह आकारादि गुणों वाला है और न देखने सुनने में ही आ सकता है वही सूक्ष्म शरीर है आत्मा का आरोप या प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है और इसीका बार-बार जन्म होता है !
!!३२!! उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्या से ही आत्मा में आरोपित है जिस अवस्था में आत्म स्वरूप के ज्ञान से यह आरोप दूर हो जाता है उसी समय ब्रह्मा का साक्षात्कार होता है !
!!३३!! तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरुपा श्वरकी माया निवृत्त हो जाती है उस समय जीव परमानन्द मय हो जाता है और अपनी स्वरुप महिमा में प्रतिष्ठित होता है !
!!३४!! वास्तव में जिसके जन्म नहीं है और कर्म भी नहीं है उन ह्रदयेश्वर भगवान के अप्राकृत जन्म और कर्मों का तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदों के अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं !
!!३५!! भगवान की लीला अमोघ है वे लीला से ही संसार का सृजन पालन और संहार करते हैं किंतु इसमें आसक्त नहीं होते प्राणियों के अन्त:करण में छिपे रह कर ज्ञानेंद्रिय और मन के नियन्ता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते हैं परंतु उनसे अलग रहते हैं वे परम स्वतन्त्र हैं ये विषय कवि उन्हें लिप्त नहीं कर सकते !
!!३६!! जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता वैसे ही अपने संकल्प और वेद वाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किए हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत सी तर्क युक्तियों के द्वारा नहीं पहचान सकता !
!!३७!! चक्रपाणि भगवान की शक्ति और पराक्रम अनन्त है उसकी कोई थाह नहीं पा सकता वे सारे जगत के निर्माता होने पर भी उससे सर्वथा परे हैं उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है जो नित्य निरन्तर निष्कपट भाव से उनके चरण कमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है सेवा भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है !
!!३८!! शौनकदि ऋषियो आप लोग बड़े ही सौभाग्य साली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्न बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान श्री कृष्ण से वह सर्वात्मक आत्म भाव वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं जिससे फिर इस जन्म मरण रूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पड़ना होता !
!!३९!! भगवान वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नामका पुराण बनाया है !
!!४०!! उन्होंने इस श्लाघनीय कल्याणकारी और महान पुराण को लोगों के परम कल्याण के लिए अपने आत्मज्ञानि शिरोमणि पुत्र को ग्रहण कराया !
!!४१!! इसमें सारे वेद और इतिहासों का सार सार संग्रह किया गया है शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को यहां सुनाया !
!!४२!! उस समय वे परम र्षियों से घिरे हुए आमरण अनशन का व्रत लेकर गग्डांतट पर बैठे हुए थे भगवान श्री कृष्ण जब धर्म ज्ञान आदि के साथ अपने परमधाम को पधार गए सब इस कलियुग में जो लोग अज्ञान रूपी अन्धकार से अंधे हो रहे हैं उनके लिए यह पुराण रूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है शौनकदि ऋषियो जब महा तेजस्वी श्री सुकदेव जी महाराज वहां इस पुराण की कथा कह रहे थे तब मैं भी वहां बैठा था वही मैंने उनकी कृपा पूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है उसी के अनुसार इसे मैं आप लोगों को सुनाऊंगा !
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