देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट-भाग-११

श्रीमद्भागवत

 १६  ऋषि यों ने कहा____ वे लीला से ही अवतार धारण करते हैं नारदादि महात्माओं ने उनके उदार कर्मों का गान किया है हम श्रद्धालुओं के प्रति आप उनका वर्णन कीजिए !


!!१७!! बुद्धिमान सूतजी सर्व समर्थ प्रभु अपनी योगमाया से स्वच्छन्द लीला करते हैं आप उन श्रीहरि की मग्ड़लमयी अवतार कथाओं का अब वर्णन कीजिए !


!!१८!! पुण्यकीर्ति भगवान की लीला सुनने से हमें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि रसज्ञ श्रोताओं को पद पद पर भगवान की लीलाओं में नए-नए रस का अनुभव होता है !


!!१९!! भगवान श्री कृष्ण अपने को छिपाए हुए थे लोगों के सामने ऐसी चेष्टा करते थे मानो कोई मनुष्य हो परन्तु उन्होंने बलराम जी के साथ ऐसी लीलाएं भी की हैं ऐसा पराक्रम भी प्रकट किया है जो मनुष्य नहीं कर सकते !


!!२०!! कलियुग को आया जानकर इस वैष्णव क्षेत्र में हम दीर्घकालीन सत्र का संकल्प करके बैठे हैं श्री हरि की कथा सुनने के लिए हमें अवकाश प्राप्त है !


!!२१!! यह कलियुग अन्तः करण की पवित्रता और शक्ति का नाश करने वाला है इससे पार पाना कठिन है जैसे समुद्र से पार जाने वालों को कर्णधार मिल जाए उसी प्रकार इससे पार पाने की इच्छा रखने वाले हम लोगों से ब्रह्मा ने आपको मिलाया है !


!!२२!! धर्म रक्षक ब्राह्मण भक्त योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण के अपने धाम में पधार जाने पर धर्म ने अब किसकी शरण ली है यह बताइए !


!!२३!! श्री व्यास जी कहते हैं____ शौनकादि ब्रह्मावादी ऋषि यों के प्रश्न सुनकर रोम हर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को बड़ा ही आनन्द हुआ उन्होंने ऋषि यों के इस मग्ड़लमय प्रश्न का अभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया !


!!१!! सूतजी ने कहा____ जिस समय श्री सुकदेव जी का यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था सूतरा लौकिक वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यास जी विरह से कातर होकर पुकारने लगे बेटा बेटा उस समय तन्मय होने के कारण श्री सुकदेव जी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया ऐसे सबके हृदय में विराजमान श्री सुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूं !


!!२!! यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय रहस्यात्मक पुराण है यह भगवत्स्वरूप का अनुभव कराने वाला और समस्त वेदों का सार है संसार में फंसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं उनके लिए आध्यात्मिक तत्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है वास्तव में उन्हीं पर करुणाकर के बड़े-बड़े मुनियों के आचार्य श्री सुकदेव जी ने इसका वर्णन किया है मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूं !


!!३!! मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ भगवान के अवतार नर-नारायण ऋषियों को सरस्वती देवी को और श्री व्यास देव जी को नमस्कार करके तब संसार और अन्तःकरण के समस्त विकारों पर विजय प्राप्त कराने वाले इस श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ करना चाहिए !


!!४!! ऋषियो आपने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए यह बहुत सुन्दर प्रश्न किया है क्योंकि यह प्रश्न श्री कृष्ण के सम्बन्ध में है और इससे भली-भांति आत्मशुद्ध हो जाती है !


!!५!! मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है जिससे भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति हो भक्ति भी ऐसी जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य निरन्तर बनी रहे ऐसी भक्तो से हृदय आनन्द स्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है !


!!६!! भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है !


!!७!! धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम ही श्रम है !


!!८!! धर्म का फल है मोक्ष उसकी सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं है अर्थ केवल धर्म के लिए है भोग विलास उसका फल नहीं माना गया है !


!!९!! भोग विलास का फल इंद्रियों को तृप्त करना नहीं है उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह जीवन का फल भी तत्त्वजिज्ञासा है बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है !


!!१०!! तत्त्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेयके भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानंद स्वरूप ज्ञान को ही तत्व कहते हैं उसी को कोई ब्रह्म कोई परमात्मा कोई भगवान के नाम से पुकारते हैं !


!!११!! श्रद्धालु मुनि जन भागवत श्रवण से प्राप्त ज्ञान वैराग्य युक्त भक्ति से अपने हृदय में उस परमतत्व रूप परमात्मा का अनुभव करते हैं !


!!१२!! शौनकादि ऋषियों यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुसार मनुष्य जो धर्म का अनुष्ठान करते हैं उसकी पूर्ण सिद्धि इसी में है कि भगवान प्रसन्न हो !   

 

!!१३!! इसलिए एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान का ही नित्य निरन्तर श्रवण कीर्तन ध्यान और आराधना करनी चाहिए !


!!१४!! कर्मों की गांठ बड़ी कडी़ है विचार वान पुरुष भगवान के चिन्तन की तलवार से उस गांठ को काट डालते हैं तब भला ऐसा कौन मनुष्य होगा जो भगवान की लीला कथा में प्रेम न करें !


!!१५!! शौनकादि ऋषियो पवित्र तीर्थों का सेवन करने से महत्सेवा तदनन्तर श्रवण की इच्छा फिर श्रद्धा तत्पश्चात भगवत कथा में रूचि होती है !


!!१६!! भगवान श्री कृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं वे अपनी कथा सुनने वालों के हृदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं क्योंकि वे संतों के नित्य सुहृद हैं !


!!१७!! जब श्रीमद्भागवत अथवा  भगवद्भक्तों के निरन्तर सेवन से अशुभ वासनाएं नष्ट हो जाती हैं तब पवित्र कीर्ति भगवान श्री कृष्ण के प्रति स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है !


!!१८!! तब रजोगुण और तमोगुण के भाव काम और लोभदि शान्त हो जाते हैं और चित्त इनसे रहित होकर सत्त्व गुण में स्थित एवं निर्मल हो जाता है !


!!११!! इस प्रकार भगवान की प्रेम मयी भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियां मिट जाती हैं हृदय आनन्द से भर जाता है तब भगवान के तत्त्व का अनुभव अपने आप हो जाता है !


!!२०!! हृदय में आत्म स्वरूप भगवान का साक्षात्कार होते ही ह्रदय की ग्रंथि टूट जाती है सारे सन्देह मिट जाते हैं और कर्म बन्धन क्षीण हो जाता है !


!!२१!! इसी से बुद्धिमान लोग नित्य निरन्तर बड़े आनन्द से भगवान श्री कृष्ण के प्रति प्रेम भक्ति करते हैं जिससे आत्मा प्रसाद की प्राप्ति होती है।                          


!!२२!! प्रकृति के तीन गुण है सत्त्व रज और तम इन को स्वीकार करने इस संसार की स्थिति उत्पत्ति और प्रलय के लिए एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु ब्रह्मा और रूद्र ये तीन नाम ग्रहण करते हैं फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्त्वगुण स्वीकार करने वाले श्रीहरि से ही होता है !


!!२३!! जैसे पृथ्वी के विकार लकड़ी की अपेक्षा धुआं श्रेष्ठ है और उससे भी श्रेष्ठ है अग्नि क्योंकि वेदोक्त यज्ञ यागादि के द्वारा अग्नि सद्गति देने वाला है वैसे ही तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से भी सत्व गुण श्रेष्ठ है क्योंकि वह भगवान का दर्शन कराने वाला है !


!!२४!! प्राचीन युग में महात्मा लोग अपने कल्याण के लिए विशुद्ध सत्त्वमय भगवान विष्णु की  ही आराधना किया करते थे अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं वे उन्हीं के समान कल्याण भाजन होते हैं !


!!२५!! जो लोग इस संसार सागर से पार जाना चाहते हैं वे यद्यपि किसी की निन्दा तो नहीं करते न किसी में दोष  ही देखते हैं फिर भी घोर रूप वाले तमोगुणी रजोगुणी भैरवादि भूत पतियों की उपासना न करके सत्वगुणी विष्णु भगवान और उनके अंश कला स्वरूपों का ही भजन करते हैं !


!!२६!! परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी  है वे धन ऐश्वर्य और संतान की कामना से भूत पितर और प्रजापति यों की उपासना करते हैं क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतदि) से मिलता-जुलता होता है !


!!२७!! वेदों का तात्पर्य श्री कृष्ण में ही है यज्ञों के उद्देश्य श्री कृष्ण ही है योग श्री कृष्ण के लिए ही किए जाते हैं और समस्त कर्मों की पारि समाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है!


!!२८!! ज्ञान से ब्रह्म स्वरूप श्री कृष्ण की ही प्राप्ति होती है तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए ही की जाती है श्री कृष्ण के लिए ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियां श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं !


!!२९!! यद्यपि भगवान श्री कृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत हैं फिर भी अपनी गुण मयी माया से जो प्रपंच की दृष्टि से हैं और तत्त्व की दृष्टि से नहीं है उन्होंने ही सर्ग के आदमें इस संसार की रचना की थी !


!!३०!! ये सत्त्व रज और तम तीनों गुण उसी माया के विलास हैं इनके भीतर रहकर भगवान इन से युक्त सरीखे मालूम पड़ते हैं वास्तव में तो वे परिपूर्ण  विज्ञानानन्द घन है !


!!३१!! अग्नि तो वस्तुतः एक ही है परंतु जब वह अनेक प्रकार की लकड़ियों में प्रकट होती है तब अनेक सी मालूम पड़ती है वैसे ही सब के आत्म रूप भगवान तो एक ही है परंतु प्राणियों की अनेकता से अनेक जैसे जान पड़ते हैं !


भगवान ही सुक्ष्म भूत तन्मात्रा इंद्रिय तथा अंतः करण आदि गुणों के विकार भूत भावों के द्वारा नाना प्रकार की योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते कराते हैं !


!!३३!! वे ही संपूर्ण लोकों की रचना करते हैं और देवता पशु पक्षी मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्त्वगुण के द्वारा जीवों का पालन पोषण करते हैं! 


!!३४!! श्री सूत जी कहते हैं___ सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा की इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुष रूप ग्रहण किया उनमें दस इंद्रियां एक मन और पांच भूत ये सोलह कलाएं थी !


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