देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट _भाग-९

 ३१!! श्री सनकादि कहते हैं____इस प्रकार दिन वचन कह कर फिर वक्ता का पूजन करे उसे सुन्दर वस्त्रा भूषणों से विभूषित करे और फिर पूजा के पश्चात उसकी इस प्रकार स्तुति करे !

श्रीमद्भागवत


!!३२!! शुक स्वरूप भगवान आप समझाने की कला में कुशल और सब शास्त्रों में पारंगत हैं कृपया इस कथा को प्रकाशित करके मेरा अज्ञान दूर करें !


!!३३!! फिर अपने कल्याण के लिए प्रसन्नता पूर्वक उसके सामने नियम ग्रहण करें और सात दिनों तक यथाशक्ति उसका पालन करे !


!!३४!! कथा में विघ्न न हो इसके लिए पांच ब्राह्मणों को और वरण करें वे द्वादशाक्षर मन्त्र द्वारा भगवान के नामों का जप करें !


!!३५!! फिर ब्राह्मण अन्य विष्णु भक्त एवं कीर्तन करने वालों को नमस्कार करके उनकी पूजा करें और उनकी आज्ञा पाकर स्वयं भी आसन पर बैठ जाय !


!!३६!! जो पुरुष लोक सम्पत्ति धन घर और पुत्रादि की चिन्ता छोड़कर शुद्ध चित्त से केवल कथा में ही ध्यान रखता है उसे इसके श्रवण का उत्तम फल मिलता है !


!!३७!! बुद्धिमान वक्ता को चाहिए कि सूर्योदय से कथा आरम्भ करके  बाढ़ें तीन पहरतक मध्यम स्वर से अच्छी तरह कथा बांचे !


!!३८!! दोपहर के समय दो घड़ी तक कथा बंद रखें उस समय कथा के प्रसग्ड़ के अनुसार वैष्णवों को भगवान के गुणों का कीर्तन करना चाहिए व्यर्थ बातें नहीं करनी चाहिए !


!!३९!! कथा के समय मल मूत्र के वेग को काबू में रखने के लिए अल्पाहार सुखकारी होता है इसलिए श्रोता केवल एक ही समय हविष्यान्न भोजन करें !


!!४०!! यदि सक्ती हो तो सातों दिन निराहार रहकर कथा सुने अथवा केवल घी या दूध पीकर सुख पूर्वक श्रवण करे !


!!४१!! अथवा फलाहार या एक समय ही भोजन करें जिससे जैसा नियम सुभीते से सध सके उसी को कथा श्रवण के लिए ग्रहण करें


!!४२!! मैं तो उपवास की अपेक्षा भोजन करना अच्छा समझता हूं यदि वह कथा श्रवण में सहायक हो यदि उपवास से श्रवण में बाधा पहुंचती हो तो वह किसी काम का नहीं !


!!४३!! नारद जी नियम से सप्ताह सुनने वाले पुरुषों के नियम सुनिए विष्णु भक्त की दीक्षा से रहित पुरुष कथा श्रवण का अधिकारी नहीं है !


!!४४!! जो पुरुष नियम से कथा सुने उसे ब्रम्हचर्य से रहना भूमि पर सोना और नित्य प्रति कथा समाप्त होने पर पत्तल में भोजन करना चाहिए !


!!४५!! दाल मधु तेल गरिष्ठ अन्न भाव दूषित पदार्थ और बासी अन्न इनका उसे सर्वदा ही त्याग करना चाहिए !


!!४६!! काम क्रोध मद मान मत्सर लोभ दम्भ मोह और द्वेषको तो अपने पास भी नहीं फटकने देना चाहिए !


!!४७!! वह वेद वैष्णव ब्राह्मण गुरु गो सेवक तथा स्त्री राजा और महापुरुषों की निन्दा से भी बचे !


!!४८!! नियम से कथा सुनने वाले पुरुष को रजस्वला स्त्री अन्त्यज म्लेच्छ पतित गायत्रीहीन द्विज ब्राह्मणों से द्वेष करने वाले तथा वेद को न मानने वाले पुरुषों से बात नहीं करनी चाहिए !


!!४९!! सर्वदा सत्य शौच दया मौन सरलता विनय और उदारता का बर्ताव करना चाहिए !


!!५०!! धनहीन क्षयरोगी किसी अन्य रोग से पीड़ित भाग्यहीन पापी पुत्रहीन और मुमुक्षु भी यह कथा श्रवण करे !


!!५१!! जिस स्त्री का रजोदर्शन रुक गया हो जिसके एक ही संतान होकर रह गयी हो जो बांझ हो जिसकी संतान होकर मर जाती हो अथवा जिसका गर्भ गिर जाता हो वह यन्त्रपूर्वक इस कथा को सुने !


!!५२!! ये सब यदि विधिवत् कथा सुनें तो इन्हें अक्षय फल की प्राप्ति हो सकती है यह अत्युत्तम दिव्य कथा करोड़ों यज्ञों का फल देने वाली है !


!!५३!! इस प्रकार इस व्रत की विधियों का पालन करके फिर उद्यापन करे जिन्हें इसके विशेष फल की इच्छा हो वे जन्माष्टमी व्रत के समान ही इस कथा व्रत का उद्यापन करे !


!!५४!! किन्तु जो भगवान के अकिच्ञन भक्त हैं उनके लिए उद्यापन का कोई आग्रह नहीं है वे श्रवण से ही पवित्र हैं क्योंकि वे तो निष्काम भगवभ्दक्त हैं !


!!५५!! इस प्रकार जब सप्ताह यज्ञ समाप्त हो जाए तब श्रोताओं को अत्यन्त भक्ति पूर्वक पुस्तक और वक्ता की पूजा करनी चाहिये !


!!५६!! फिर वक्ता श्रोताओं को प्रसाद तुलसी और प्रसादी मालाएं दें तथा सब लोग मृदंग और झांझ की मनोहर ध्वनि से सुन्दर कीर्तन करें !


!!५७!! जय जय कार नमस्कार और शंख ध्वनि का घोष कराये तथा ब्राह्मण और याचकों को धन और अन्न दें !


!!५८!! श्रोता विरक्त हो तो कर्म की शान्ति के लिए दूसरे दिन गीता पाठ करें गृहस्थ हो तो हवन करें !


!!५९!! उस हवन में दशम स्कन्ध का एक एक श्लोक पढ़कर विधिपूर्वक खीर मधु घृत तिल और अन्नादि सामग्रियों से आहुति दें !


!!६०!! अथवा एकाग्र चित्त से गायत्री मन्त्र द्वारा हवन करें क्योंकि तत्त्वत: यह महापुराण गायत्री स्वरूप ही है !


!!६१!! होम करने की शक्ति न हो तो उसका फल प्राप्त करने के लिए ब्राह्मणों को हवन सामग्री दान करे तथा नाना प्रकार की त्रुटियों को दूर करने के लिए और विधि में फिर जो न्यूनाधिता रह गए हो उसके दोषों की शान्ति के लिए विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें उससे सभी कर्म सफल हो जाते हैं क्योंकि कोई भी कर्म इससे बढ़कर नहीं है !


!!६२-६३!! फिर बारह ब्राह्मणों को खीर और मधु आदि उत्तम उत्तम पदार्थ खिलाएं तथा व्रत की पूर्ति के लिए गौ

 और सुवर्ण का दान करें !


!!६४!! सामर्थ्य हो तो तीन तोले सोने का एक सिंहासन बनवाएं उस पर सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई श्रीमद्भागवत की पोथी रखकर उसकी आवाहनादि विविध उपचारों से पूजा करें और फिर जितेन्द्रित आचार्य को उसका वस्त्र आभूषण एवं गन्धादि  से पूजन कर दक्षिणा के सहित समर्पण कर दें !


!!६५-६६!! यों करने से वह बुद्धिमान दाता जन्म मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है यह सप्ताह पारायण की विधि सब पापों की निवृत्ति करने वाली है इसका इस प्रकार ठीक-ठीक पालन करने से यह मंगल में भागवत पुराण अभीष्ट फल प्रदान करता है तथा अर्थ धर्म काम और मोक्ष चारों की प्राप्ति का साधन हो जाता है इसमें सन्देह नहीं !


!!६७-६८!! सनकादि कहते हैं____ नारज जी इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताह श्रवण की विधि हमने पूरी पूरी सुना दी अब और क्या सुनना चाहते हो इस श्रीमद्भागवत से भोग और मोक्ष दोनों ही हाथ लग जाते हैं !


!!६९!! सूत जी कहते हैं शौनक जी यों कहकर महामुनि सनकादि  ने एक सप्ताह तक विधि पूर्वक इस सर्व पापनाशिनी परम पवित्र तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली भागवत कथा का प्रवचन किया सब प्राणियों ने नियम पूर्वक इसे श्रवण किया इसके पश्चात उन्होंने विधिपूर्वक भगवान पुरुषोत्तम की स्तुति की !


!!७०-७१!! कथा के अन्त में ज्ञान वैराग्य और भक्ति को बड़ी पुष्टि मिली और वे तीनों एकदम तरुण होकर सब जीवों का चित्त अपनी ओर आकर्षित करने लगे !


!!७२!! अपना मनोरथ पूरा होने से नाराज जी को भी बड़ी प्रसन्नता हुई उनके सारे शरीर में रोमांच हो आया और वे परमानन्द से पूर्ण हो गए !


!!७३!! इस प्रकार कथा श्रवण कर भगवान के प्यारे नारद जी हाथ जोड़कर प्रेम गदगद वाणी से सनकादि से कहने लगे !


!!७४!! नारद जी ने कहा____ मैं धन्य हूं आप लोगों ने करुणा करके मुझे बड़ा ही अनुग्रहित किया है आज मुझे सर्व पाप हारी भगवान श्री हरि की प्राप्ति हो गई !


!!७५!! तपोवनो मैं श्रीमद्भागवत श्रवण को ही सब धर्मों से श्रेष्ठ मानता हूं क्योंकि जिसके श्रवण से वैकुण्ठ (गोलोक)_ विहारी श्री कृष्ण की प्राप्ति होती है !


!!७६!! सूत जी कहते हैं शौनक जी वैष्णव श्रेष्ठ नारद जी यों कह ही रहे थे कि वहां घूमते फिरते योगेश्वर सुकदेव जी आ गए !


!!७७!! कथा समाप्त होते ही व्यास नन्दन श्रीशकदेव जी वहां पधारें सोलह वर्ष की सी आयु आत्म लाभ से पूर्ण ज्ञान रूपी महासागर का संवर्धन करने के लिए चन्द्रमा के समान वे प्रेम से धीरे-धीरे श्रीमद्भागवत का पाठ कर रहे थे!


!!७८!! परम तेजस्वी सुकदेव जी को देख कर सारे सभासद झटपट खड़े हो गए और उन्हें एक ऊंचे आसन पर बैठाया फिर देवर्षि नारद जी ने उनका प्रेम पूर्वक पूजन किया उन्होंने सुख पूर्व बैठकर कहा आप लोग मेरी निर्मल वाणी सुनिए !


!!७९!! श्री सुकदेव जी बोले___ रसिक एवं भावुक जन यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का परिपक्व फल है श्री सुकदेव रूप शुकके  मुख का संयोग होने से अमृत रस से परिपूर्ण हैं यह रस ही रस है इसमें न छिलका है न गुठली यह इसी लोक में सुलभ है जब तक शरीर में चेतना रहे तब तक आप लोग बार-बार इसका पान करें !


!!८०!! महामुनि व्यास देव ने श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की है इसमें निष्कपट निष्काम परम धर्म का निरूपण है इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषों के जानने योग्य कल्याणकारी वास्तविक वस्तु का वर्णन है जिसमें तीनों सांपों की शांति होती है इसका आश्रय लेने पर दूसरे शास्त्र अथवा साधन की आवश्यकता नहीं रहती जब कभी पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं तभी ईश्वर अविलम्ब उनके हृदय में अवरुद्ध हो जाता है !


!!८१!! यह भागवत पुराणों का तिलक और वैष्णवों का धन है इसमें परमहंसों के  प्राप्त पर विशुद्ध ज्ञान का ही वर्णन किया गया है तथा ज्ञान वैराग्य और भक्तों के सहित निवृत्ति मार्ग को प्रकाशित किया गया है जो पुरुष भक्ति पूर्वक इसके श्रावण पठन और मनन में तत्पर रहता है वह मुक्त हो जाता है !


!!८२!! यह रस स्वर्ग लोक सत्य लोग कैलाश और वैकुण्ठ में भी नहीं है इसलिए भाग्यवान श्रोताओं  तुम इसका खूब पान करो इसे कभी मत छोड़ो मत छोड़ो !


!!८३!! सूत जी कहते हैं ------ श्री सुकदेव जी  इस प्रकार कह ही रहे थे कि उस सभा के बीचो-बीच प्रहलाद बलि उद्धव और अर्जुन आदि पार्षदों के सहित साक्षात श्रीहरि प्रकट हो गए तब देवर्षि नारद ने भगवान और उनके भक्तों की यथोचित पूजा की !


!!८४!! भगवान को प्रसन्न न देख कर दे देवर्षि ने उन्हें एक विशाल सिंहासन पर बैठा दिया और सब लोग उनके सामने संकीर्तन करने लगे उस कीर्तन को देखने के लिए श्री पार्वती जी के सहित महादेव जी और ब्रह्मा जी भी आए !


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