देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट- भाग-७

 ५!!  सूत जी कहते है____ वह जहां तहां से बहुत सा धन चुरा कर घर लौट आया तथा उन्हें कुछ सुन्दर वस्त्र और आभूषण ला कर दिये !

श्रीमद्भागवत


!!६!! चोरी का बहुत माल देखकर रात्रि के समय स्त्रियों ने विचार किया कि यह नित्य ही चोरी  करता है इसलिये इसे किसी दिन अवश्य राजा पकड़ लेगा!


!!७!! राजा यह सारा धन छीन कर इसे निश्चय ही प्राण दण्ड देगा जब एक दिन इसे मरना ही है तब हम ही धन की रक्षा के लिये गुप्त रूप से इसको क्यों न मार डालें !


!!८!! इसे मार कर हम इसका माल मता लेकर जहां कहीं चली जायंगी ऐसा निश्चय कर उन्होंने सोये हुए धुन्धुकारी को रस्सियों से कस दिया और उसके गले में फांसी लगाकर उसे मारने का प्रयत्न किया इससे जब वह जल्दी न मरा तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई !


!!९-१०!! तब उन्होंने उसके मुख पर बहुत से दहकते अंगारे डालें इस से वह अग्रि की लपटों से बहुत छटपटा कर मर गया !


!!११!! उन्होंने उसके शरीर को एक गड्ढे में डालकर गाड़ दिया सच है स्त्रीयां प्रायः बड़ी दु:साहसी होती हैं उनके इस कृत्य का किसी को भी पता न चला !


!!१२!! लोगों के पूछने पर कह देती थीं  कि हमारे प्रियतम पैसे के लोभ से अबकी बार कहीं दूर चले गये हैं इसी वर्ष के अन्दर लौट आयेंगे


!!१३!! बुद्धिमान पुरुष को दुष्टा स्त्रियों का कभी विश्वास न करना चाहिये जो मूर्ख इनका विश्वास करता है उसे दुःखी होना पड़ता है !


!!१४!! इनकी वाणी तो अमृत के समान कमियों के हृदय में रसका संचार करती हैं किंतु ह्रदय छूरे की धार के समान तीक्ष्ण होता है भला इन स्त्रियों का कौन प्यारा है !


!!१५!! वे कुलटाएं धुंन्धुकारी की सारी सम्पत्ति समेट कर वहां से चंपत हो गयी: उनके ऐसे न जाने कितने पति थे और धुंन्धुकारी अपने कुकर्मों के कारण भयंकर प्रेत हुआ !


!!१६!! वह बवंडर के रूप में सर्वदा दसों दिशाओं में भटकता रहता था तथा शीत घाम से सन्तप्त और भूख प्यास से व्याकुल होने के कारण हा दैव हा दैव  चिल्लाता  रहता था परन्तु उसे कहीं भी कोई आश्रय न मिला कुछ काल बीतने पर गोकर्ण ने भी लोगों के मुख से धुंन्धकारी की मृत्यु का समाचार सुना !


!!१७-१८!! तब उसे अनाथ समझकर उन्होंने उसका गया जी में श्राद्ध किया ; और भी जहां-जहां वे  जाते थे उसका श्राद्ध अवश्य करते थे !


!!१९!! इस प्रकार घूमते घूमते गोकर्ण जी अपने नगर में आये और रात्रि के समय दूसरों की दृष्टि से बचकर सीधे अपने घर के आंगन में सोने के लिये पहुंचे! 


!!२०!! वहां अपने भाई को सोया देख  आधी रात के समय धुंन्धकारी ने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया !


 !!२१!! वह कभी भेड़ा कभी हाथी कभी भैसा कभी इन्द्र और कभी अग्रिका रूप धारण करता अन्त में वह मनुष्य के आकार में प्रकट हुआ !


!!२२!! ये विपरीत अवस्थाएं देखकर गोकर्ण ने निश्चय किया कि यह कोई दुर्गति को प्राप्त हुआ जीव है तब उन्होंने उससे धैर्यपूर्वक पूछा !


!!२३!! गोकर्ण ने कहा____ तू कौन है रात्रि के समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है तेरी यह दशा कैसे हुई हमें बता तो सही___ तू प्रेत है पिशाच है अथवा कोई राक्षस है !


!!२४!! सूत जी कहते हैं___ गोकर्ण के इस प्रकार पूछने पर वह बार-बार जोर जोर से रोने लगा उसमें बोलने की शक्ति नहीं थी इसलिये उसने केवल संकेत मात्र किया !


!!२५!! तब गोकर्ण ने अंजलि में जल लेकर उसे अभिमंत्रित करके उस पर छिड़का इससे उसके पापों का कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा !


!!२६!! प्रेत बोला___ मैं तुम्हारा भाई हूं मेरा नाम है  धुन्धुकारी  मैंने अपने ही दोष से अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया !


!!२७!! मेरे कुकर्मों की गिनती नहीं की जा सकती मैं तो महान अज्ञान में चक्कर काट रहा था इसी से मैंने लोगों की बड़ी हिंसा की अन्त में कुलटा रित्रयों ने मुझे तड़पा तड़पा कर मार डाला !


!!२८!! इसी से अब प्रेत योनि में पड़कर यह दुर्दशा भोग रहा हूं अब दैववश कर्म फल का उदय होने से मैं केवल वायु भक्षण कर के जी रहा हूं !


!!२९!! भाई तुम दया के समुद्र हो अब किसी प्रकार जल्दी ही मुझे इस योनि से छुड़ाओ  गोकर्ण धुन्धुकारी की सारी बातें सुनीं और तब उससे बोले !


!!३०!!  गोकर्ण ने कहा____ भाई मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है मैंने तुम्हारे लिये विधि पूर्वक गयाजी में पिण्ड दान किया फिर भी तुम प्रेत योनि से मुक्त कैसे नहीं हुए  !


!!३१!! यदि गया श्राद्ध से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हुई तब इसका और कोई उपाय ही नहीं है अच्छा तुम सब बात खोल कर कहो मुझे अब क्या करना चाहिये !


!!३२!! प्रेत ने कहा ___मेरी मुक्ति सैकड़ों गया श्राद्ध करने से भी नहीं हो सकती अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो !


!!३३!! प्रेत की यह बात सुनकर गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ वे कहने लगे यदि सैकड़ों गया श्राद्ध से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है !


!!३४!! अच्छा अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिये कोई दूसरा उपाय करूंगा !


!!३५!! गोकर्ण की आज्ञा पाकर धुंन्धुकारी वहां से अपने स्थान पर चला आया इधर गोकर्ण ने रातभर विचार किया तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा !


!!३६!! प्रातः काल उनको आया देख लोग प्रेम से उनसे मिलने आये तब गोकर्ण रात में जो कुछ जिस प्रकार हुआ था वह सब उन्हें सुना दिया !


!!३७!! उनमें जो लोग विद्वान योग निष्ठ ज्ञानी और वेदज्ञ थे उन्होंने भी अनेकों शास्त्रों को उलट पलट कर देखा तो भी उसकी मुक्ति का कोई उपाय न मिला !


 !!३८!! तब सब ने यही निश्चय किया कि इस विषय में सूर्य नारायण जो आज्ञा करें वही करना चाहिये अतः गोकर्ण ने अपने तपोबल से सूर्य की गति को रोक दिया !


!!३९!! उन्होंने स्तुति की भगवन आप सारे संसार के साक्षी हैं मैं आपको नमस्कार करता हूं आप मुझे कृपा करके धुंन्धुकारी की मुक्ति का साधन बताइये गोकर्ण की यह प्रार्थना सुनकर सूर्यदेव ने दूर से ही स्पष्ट शब्दों में कहा श्रीमद्भागवत से मुक्ति हो सकती है इसलिये तुम उसका सप्ताह  पारायण करो सूर्य का यह धर्म मय  वचन वहां सभी ने सुना !


!!४०-४१!! तब सब ने यही कहा कि प्रयत्न पूर्वक यही करो है भी यह साधन बहुत सरल अतः गोकर्ण जी  भी तदनुसार निश्चय करके कथा सुनाने के लिये तैयार हो गये !


!!४२!! देश और गांवों से अनेकों लोग कथा सुनने के लिये आये बहुत से लंगड़े लूले अंधे बूढ़े और मन्दबुद्धि पुरुष भी अपने पापों की निवृत्ति के उद्देश्य से वहां आ पहुंचे !


 !!४३!! इस प्रकार वहां इतनी भीड़ हो गयी कि उसे देखकर देवताओं को भी आश्चर्य होता था जब गोकर्ण जी व्यास गद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे तब वह प्रेत भी वहां आ पहुंचा और इधर-उधर बैठने के लिये स्थान ढूंढ़ने लगा इतने में ही उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गांठ के बांस पर पड़ी !


!!४४-४५!! उसी के नीचे के छिद्र में घुसकर वह कथा सुनने के लिये बैठ गया वायु रूप होने के कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था इसलिये बांस में घुस गया!


!!४६!! गोकर्ण जी ने एक वैष्णव ब्राह्मण को मुख्य श्रोता बनाया और प्रथम स्कन्ध से ही स्पष्ट स्वर में कथा सुनानी आरम्भ कर दी !


!!४७!! सायं काल में जब कथा को विश्राम दिया गया तब एक बड़ी विचित्र बात हुई वहां सभासदों के देखते-देखते उस बांस की एक गांठ तड़-तड़ शब्द करती फट गयी !


!!४८!! इसी प्रकार दूसरे दिन सायंकाल में दूसरी गांठ फटी और तीसरे दिन उसी समय तीसरी !


!!४९!! इस प्रकार सात दिनों में सातों गांठों को फोड़कर धुंन्धकारी बार हों स्कन्धों के सुनने से पवित्र होकर प्रेत योनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ उसका मेघ के समान श्याम शरीर पीताम्बर और तुलसी की मालाओं से सुशोभित था तथा सिर पर मनोहर मुकुट और कानों में कमनीय कुण्डल झिलमिला रहे थे !


 ५०-५१!! उसने तुरन्त अपने भाई गोकर्ण को प्रणाम करके कहा भाई तुमने कृपा करके मुझे प्रेत योनि की यातना ओंसे मुक्त कर दिया !


यह प्रेत पीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद्भागवत की कथा धन्य है तथा श्री कृष्ण चंद्र के धाम की प्राप्ति कराने वाला इसका सप्ताह पारायण भी धन्य है !


!!५३!! जब  सप्ताह श्रवण का योग लगता है तब सब पाप थर्रा उठते हैं कि अब यह भागवत की कथा जल्दी ही हमारा अन्त कर देगी !


 !!५४!! जिस प्रकार आग गीली सुखी छोटी-बड़ी सब तरह की लकड़ियों को जला डालती है उसी प्रकार यह सप्ताह श्रवण मन वचन और कर्म द्वारा किये हुए नये पुराने छोटे बड़े सभी प्रकार के पापों को भस्म कर देता है!


!!५५!! विद्वानों ने देवताओं की सभा में कहा है कि जो लोग इस भारतवर्ष में श्रीमद्भागवत की कथा नहीं सुनते हैं उनका जन्म वृथा  ही है !


!!५६!! भला मोहपूर्वक लालन पालन करके यदि इस अनित्य शरीर को हष्ट पुष्ट और बलवान भी बना लिया तो भी श्रीमद्भागवत की कथा सुने बिना इससे क्या लाभ हुआ!


!!५७!! अस्थियां ही इस शरीर के आधार स्तम्भ है  नस नाडी रूप रस्सियों से यह बंधा हुआ है ऊपर से इसपर मांस और रक्त थोपकर  इसे चर्म से मंढ़ दिया गया है इसके प्रत्येक अंग में दुर्गंध आती है क्योंकि है तो यह मल मूत्र का भाण्ड ही !


!!५८!! वृद्धावस्था और शोकके  कारण यह परिणाम में दुःख मय  ही है रोगों का तो घर ही ठहरा यह निरन्तर किसी न  किसी कामना से पीड़ित रहता है कभी इसकी तृप्ति नहीं होती इसे धारण किए रहना भी एक भार ही है इसके रोम रोम में दोष भरे हुए हैं और नष्ट होने में इसे एक क्षण भी नहीं लगता !


!!५९!! अन्त में यदि इसे गाड़ दिया जाता है तो इसके कीड़े बन जाते हैं कोई पशु खा जाता है तो यह विष्ठा हो जाता है और अग्रि में जला दिया जाता है तो भस्म की ढेरी हो जाता है ये तीन ही इसकी गतियां बतायी गयी है ऐसे अस्थिर शरीर से मनुष्य अविनाशी फल देने वाला काम क्यों नहीं बना लेता !


!!६०!! जो अन्न प्रातः काल पकाया जाता है वह सायंकाल तक बिगड़ जाता है फिर उसी के रस से पुष्ट हुए शरीर की नित्यता कैसी !

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