देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट भाग- ५

 ६५!! सूत जी कहते हैं ____शौनक जी जिस समय सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार सप्ताह श्रवण की महिमा का बखान कर रहे थे उस सभा में एक बड़ा आश्चर्य हुआ उसे मैं तुम्हें बतलाता हूं सुनो!

श्रीमद्भागवत


!!६६!! वहां तरुणावस्था को प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रों को साथ लिये विशुद्ध प्रेमरूपा भक्ति बार-बार श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवा आदि भगव त्रामो का उच्चारण करती हुई अकस्मात प्रकट हो गयीं!


!!६७!! सभी सदस्यों ने देखा कि परम सुन्दरी भक्ति रानी भागवत के अर्थों का आभूषण पहने वहां पधारी मुनियों   की उस सभा में सभी यह तर्क वितर्क करने लगे कि ये यहां कैसे आयीं  कैसे प्रविष्ट हुई!


!!६८!! तब सनकादि  ने कहा ये भक्ति देवी अभी-अभी कथा के अर्थ से निकली हैं उनके ये वचन सुनकर भक्ति ने अपने पुत्रों समेत अत्यन्त विनम्र होकर सनत्कुमार जी से कहा!


!!६९!! भक्ति बोली ____ मैं कलियुग में नष्ट प्राय हो गयी थी  आपने कथामृत से   सींचकर मुझे फिर पुष्ट कर दिया अब आप यह बताइये कि मैं कहां रहूं यह सुनकर सनकादि  ने उससे कहा!


!!७०!! तुम भक्तों को भगवान का स्वरूप प्रदान करने वाली अनन्यप्रेम का सम्पादन करने वाली और संसार रोग को निर्मूल करने वाली हो अतः तुम धैर्य धारण  करके नित्य निरन्तर विष्णु भक्तों के हृदयों में ही निवास करो!


!!७१!! ये कलियुग के दोष भले ही सारे संसार पर अपना प्रभाव डालें किन्त वहां तुमपर इनकी दृष्टि भी नहीं पड़ सकेगी इस प्रकार उनकी आज्ञा पाते ही भक्ति तुरन्त भगवद भक्तों के हृदय में जा विराजीं!


!!७२!! जिनके हृदय में एक मात्र श्री हरि की भक्ति निवास करती है वे त्रिलोकी में अत्यन्त निर्धन होने पर भी परम धन्य है क्योंकि इस भक्ति की डोरी से बंध कर तो साक्षात भगवान भी अपना परमधाम छोड़कर उनके हृदय में आकर बस जाते हैं!


!!७३!! भूलोक में यह भागवत साक्षात परब्रह्मा का  विग्रह है हम इसकी महिमा कहां तक वर्णन करें इनका आश्रय लेकर इसे सुनाने से तो सुनने और सुनाने वाले दोनों को ही भगवान श्री कृष्ण की समता प्राप्त हो जाती है  अतः इसे  छोड़कर अन्य धर्मों से क्या प्रयोजन है!  


!!७४!!सूत जी कहते हैं___मुनिवर उस समय अपने भक्तों के चित्त में अलौकिक भक्ति का प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल श्री भगवान अपना धाम छोड़कर वहां पधारे!


!!१!! उनके गले में वनमाला शोभा पा रही थी श्री अग्ड़ सजल जल धर के समान श्यामवर्ण था उस पर मोनोहर पीताम्बर सुशोभित था कृटि प्रदेश करधनी की लड़ियों से सुसज्जित था सिर पर मुकुट की लटक और कानों में कुण्डलों की झलक देखते ही बनती थी !


!!२!! वे त्रिग्ड़ ललित भाव से खड़े हुए चिंत्तकों चुराये लेते थे वक्ष: स्थल पर कौस्तुभमणि दमक रही थी सारा श्रीअग्ड़  हरिचन्दन से चर्चित था उस रूप की शोभा क्या कहें उसने तो मानो करोड़ों काम देवों की रूप माधुरी छीन ली थी!


!!३!! वे परमानन्द चिन्मूर्ति मधुराति मधुर  मुरलीधर ऐसी अनुपम छबि से अपने भक्तों के निर्मल चिंत्तों में आविर्भूत हुए थे!


!!५!! प्रभु के प्रकट होते ही चारों ओर जय हो जय हो कि ध्वनि होने लगी उस समय भक्ति रस का अद्भुत प्रवाह  चला ,बार-बार अबीर गुलाल और पुष्पों की वर्षा तथा शख्ड़ ध्वनि होने लगी !


!!६!! उस सभा में जो लोग बैठे थे उन्हें अपने देह, गेह और आत्मा की भी कोई सुधि न रही उसकी ऐसी तन्मयता देखकर नारद जी कहने लगे !


!!७!! मुनीश्वरगण आज सप्ताह श्रवण की मैंने यह बड़ी ही अलौकिक महिमा देखी यहां तो जो बड़े मूर्ख दृष्टि और पशु पक्षी भी है वे  सभी अत्यन्त निष्पाप हो गये हैं!


!!८!! अतः इसमें संदेह नहीं कि कली काल में चिंत्तकी शुद्धि के लिये इस भागवत कथा के समान मर्त्यलोक में पापपुञ्ञ का नाश करने वाला कोई दूसरा पवित्र साधन नहीं है!


!!९!! मुनिवर आप लोग बड़े कृपालु हैं आपने संसार के कल्याण का विचार करके यह बिलकुल निराला ही मार्ग निकाला है आप कृपया यह तो बताइये कि इस कथा रूप सप्ताह यज्ञ के द्वारा संसार में कौन-कौन लोग पवित्र हो जाते हैं!


!!१०!! सनकादि ने कहा____जो लोग सदा तरह-तरह के पाप किया करते हैं निरन्तर दुराचार में ही तत्पर रहते हैं और उलटे  मार्गो से चलते हैं तथा जो क्रोधाग्रि से जलते रहने वाले कुटिल और कामपरायण वे सभी इस कलियुग में साप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं!


!!१!! जो सत्य से च्युत माता पिता की निन्दा करने वाले तृष्णा के मारे व्याकुल आश्रम धर्म से रहित दम्भी दूसरों की उन्नति देखकर कुढ़ने वाले और दूसरों को दुःख देने वाले हैं वे भी कलियुग  साप्ताहयज्ञ से पवित्र हो जाते हैं!


!!१२!! जो मदिरापान ब्रह्महत्या सुवर्ण की चोरी गुरु स्त्री गमन और विश्वासघात ये पांच महापाप करने वाले छल छझ्परायण क्रूर पीशाचों के समान निर्दयी, ब्राह्मणों के धन से पुष्ट होने वाले और व्यभिचारी हैं वे भी कलियुग में साप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं!


!!१३!! जो दुष्ट आग्रह पूर्वक सर्वदा मन वाणी या शरीर से पाप करते रहते हैं दूसरे के धन से ही पुष्ट होते हैं तथा मलिन मन और दुष्ट ह्रदय वाले हैं वे भी कलियुग में साप्ताह यज्ञ पवित्र हो जाते हैं!


!!१४!! नारद जी अब हम तुम्हें इस विषय में एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं उसके सुनने से ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं!


!!१५!! पूर्व काल में तुग्ड़भद्रा नदी के तट पर एक अनुपम नगर बसा हुआ था वहां सभी वर्णों के लोग अपने अपने धर्मों का आचरण करते हुए सत्य और सत्कर्मों में तत्पर रहते थे !


!!१६!! उस नगर में समस्त वेदों का  विशेषज्ञ और श्रौत स्मार्त कर्मों में निपुण एक आत्मदेव नामक ब्राह्मण रहता था वह साक्षात दूसरे सूर्य के समान तेजस्वी था!


!!१७!! वह धनी होने पर भी भिक्षा जीवी था उसकी प्यारी पत्नी धून्धुली कुलीन एवं सुन्दरी होने पर भी सदा अपनी बात पर अड़ जाने वाली थी!


!!१८!! उसे लोगों की बात करने में सुख मिलता था स्वभाव था उस क्रूर प्रायः कुछ न कुछ बकवाद करती रहती थी गृह कार्य में निपुण थी कृपण थी और झगड़ालू भी !


!!१९!! इस प्रकार ब्राह्मण दम्पत्ति प्रेम से अपने घर में रहते और विहार करते थे उनके पास अर्थ और भोग विलास की सामग्री बहुत थी घर द्वार भी सुन्दर थे परन्तु उससे उन्हें सुख नहीं था!


!!२०!! जब अवस्था बहुत ढल गयी तब उन्होंने सन्तान  के लिये तरह-तरह के पूण्यकर्म आरम्भ किये और वे दीन दु: खियों को गौ, पृथ्वी , सुवर्ण और वस्त्रदि दान करने लगे!


!!२१!! इस प्रकार धर्ममार्ग में उन्होंने अपना आधा धन समाप्त कर दिया तो भी उन्हें पुत्र या पुत्री किसी का भी सुख देखने को न मिला इसलिये अब वह ब्राह्मण बहुत ही चिन्तातुर रहने लगा!


!!२२!! एक दिन वह ब्राह्मण देवता बहुत दुःखी होकर घर से निकलकर वन को चल दिया दोपहर के समय उसे प्यास लगी इसलिये वह एक तालाब पर आया!


!!२३!! सन्तान के अभाव के दु:ख ने उसके शरीर को बहुत सुखा दिया था इसलिये थक जानेके कारण जल पीकर वह वहीं बैठ गया दो घड़ी बीत ने पर वहां एक संन्यासी महात्मा आये!


!!२४!! जब ब्राह्मण देवता ने देखा कि जल पी चुके है तब वह उनके पास गया और चरणों में नमस्कार करने के बाद सामने खड़े होकर लंबी लंबी सांसे लेने लगा !


!!२५!! संन्यासी ने पूछा____कहो ब्राम्हण देवता रोते क्यों हो ऐसी तुम्हें क्या भारी चिन्ता है तुम जल्दी ही मुझे अपने दुःख का कारण बताओ !


!!२६!! ब्राह्मण ने कहा____महाराज मैं अपने पूर्व जन्म के पापों से संचित दुःख का क्या वर्णन करूं अब  मेरे पितर मेरे द्वारा दी हुई जला ञ्ञलि के जल को अपनी चिन्ता जनित सांस से कुछ गरम करके पीते हैं !


!!२७!! देवता और ब्राह्मण मेरा दिया हुआ प्रसन्न मनसे स्वीकार नहीं करते सन्तान के लिये मै इतना दुःखी हो गया हूं कि मुझे  सब सूना ही सूना दिखायी देता है मैं प्राण त्यागने के लिये यहां आया हूं !


!!२८!! सन्तान नही जीवन को धिक्कार है सन्तान हीन गृह को धिक्कार है सन्तान हीन धन को धिक्कार है और सन्तान हीन कुल को धिक्कार है !


!!२९!! मैं जिस गाय को पालता हूं वह भी सर्वथा बांझ हो जाती है जो पेड़ लगाता हूं उस पर भी फल फूल नहीं लगते !


!!३०!! मेरे घर में जो फल आता है वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है जब मैं ऐसा अभागा और पुत्र हीन हूं तब फिर इस जीवन को ही रखकर मुझे क्या करना है !


!!३१!! यों कहकर वह ब्राह्मण दु:ख से व्याकुल हो उन संन्यासी महात्मा के पास फूट -फूट कर रोने लगा तब उन यतिवर के हृदय में बड़ी करुणा उत्पन्न। हुई !


!!३२!! वे योगनिष्ठ  थे उन्होंने उसके ललाट की रेखाएं देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया और फिर उसे विस्तारपूर्वक कहने लगे !


!!३३!! सन्यासी ने कहा_____ब्राम्हण देवता इस प्रजाप्राप्ति का मोह त्याग दो कर्म की गति प्रबल है विवेक का आश्रय लेकर संसार की वासना छोड़ दो !


!!३४!! विप्रवर सुनो; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखकर निश्चय किया है कि सात जन्म तक तुम्हारे कोई सन्तान कीसी प्रकार नहीं हो सकती !


!!३५!! पूर्व काल में राजा सगर एवं अग्ड़ को  सन्तान के कारण दुःख भोगना पड़ा था ब्राह्मण अब तुम कुटुम्ब की आशा छोड़ दो संन्यास में ही सब प्रकार का सुख है !


!!३६!! ब्राह्मण ने कहा_____महात्मा जी विवेक से मेरा क्या होगा मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये नहीं तो मैं आपके सामने ही शोक मूर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूं !








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