भागवत का पहला अध्याय,

भागवत- का -पहला- अध्याय, नारद जी ने कहा__देवी सावधान होकर सुनो यह दारुण कलयुग है इसी से इस समय सदाचार योग मार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये है! 
श्री-मद्भागवत


 !!५७!! लोग शठता और दुष्कर्म में लगकर अधा सुर बन रहे हैं संसार में जहां देखो वही सत्पुरुष दुख से म्लान है और दुष्ट सुखी हो रहे हैं इस समय जिस बुद्धिमान पुरुष का धैर्य बना रहे वही बड़ा ज्ञानी या पंडित है! 


 !!५८!! पृथ्वी क्रमशः प्रतिवर्ष शेष जी लिये भार रूप होती जा रही है अब यह छूने योग्य तो क्या देखने योग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मग्ड़ल ही दिखायी देता है!

 !!५९!! अब किसी को पुत्रों के साथ तुम्हारा दर्शन भी नहीं होता विषया नुराग के कारण अंधे बने हुए जीवो से अपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी!


 !!६०!! वृंदावन के संयोग से तुम फिर नवीन तरुणी हो गयी हो अतः यह वृंदावन धाम धन्य हैं जहां भक्ति सर्वत्र नृत्य कर रही है! 


 !!६९!! परंतु तुम्हारे इस दोनों पुत्रों का यहां कोई ग्राहक नहीं है इसीलिए इनका बुढ़ापा नहीं छूट रहा है यहां इनको कुछ आत्म सुख (भगवत्स्पर्श जनित आनन्द) की प्राप्ति होने के कारण ये सोते से जान पड़ते हैं!

 !!६२!! भक्ति ने कहा____राजा परीक्षित ने इस पापी कलियुग को क्यों रहने दिया इसके आते ही सब वस्तुओं का सार न जाने कहां चला गया! 


 !!६३!! करुणा मय श्री हरि से भी यह अधर्म कैसे देखा जाता है मुने मेरा यह संदेह दूर कीजिए आपके बचनों से मुझे बड़ी शान्ति मिलती है!


 !!६४!! नारद जी ने कहा____बाले यदि तुमने पूछा है तो प्रेम से सुनो कल्याणी मैं तुम्हें सब बताऊंगा और तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा! 
श्री-मद्-भागवत


 !!६५!! जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण इस भुलोक को छोड़कर अपने परमधाम को पधारे उसी दिन से यहां संपूर्ण साधनों में बाधा डालने वाला कलियुग आ गया! !!

६६!! दिग्विजय के समय राजा परीक्षित की दृष्टि पड़ने पर कलियुग दिन के समान उनकी शरण में आया भम्रर के समान सार ग्राही राजा ने यह निश्चय किया कि इसका वध मुझे नहीं करना चाहिए! 


 !!६७!! क्योंकि जो फल तपस्या योग एवं समाधि से भी नहीं मिलता कलियुग में वही फल श्री हरि की र्तन से ही भली-भांति मिल जाता है!


 !!६८!! इस प्रकार सारहीन होने पर भी उसे इस एक ही दृष्टि से सारयुक्त देखकर उन्होने कलियुग में उत्पन्न होने वाले जीवो के सुख के लिये ही इसे रहने दिया था! 

 !!६९!! इस समय लोगों के कुकर्म में प्रवृत्त होने के कारण सभी वस्तुओं का सार निकल गया है और पृथ्वी के सारे पदार्थ बीजहीन भूसी के समान हो गये हैं!


 !!७०!! ब्राम्हण केवल अत्र धनादि के लोभवस घर-घर एवं जन जन को भागवत की कथा सुनाने लगे हैं इसलिये कथा का सार चला गया है!

 !!७९!! तीर्थों में नाना प्रकार के अत्यन्त घोर कर्म करने वाले नास्तिक और नारकी पुरुष भी रहने लगे है इसलिये तीर्थों का ही प्रभाव जाता रहा है! 


 !!७२!! जिनका चित्त निरन्तर काम क्रोध महान लोभ और तृष्णा से तपता रहता है वे भी तपस्या का ढोंग करने लगे हैं इसलिए तप का भी सार निकल गया! 


 !!७३!! मन पर काबू न होने के कारण तथा लोभ दम्भ और पाखण्ड का आश्रय लेने के कारण एवं शास्त्र का अभ्यास न करने से ध्यान योग का फल मिट गया!

 !!७४!! पंडितों की यह यह दशा है कि वे अपनी रित्रयों के साथ भैंसों की तरह रमण करते हैं उनमें संतान पैदा करने की ही कुशलता पायी जाती है मुक्त साधनों में वे सर्व था अकुशल हैं!


 !!७५!! संम्प्रदाया अनुसार प्राप्त हुई वैष्णवता भी कहीं देखने में नहीं आती इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओं का सार लुप्त हो गया है !


 !!७६!! यह तो इस युग का स्वभाव ही है इसमें किसी का दोष नहीं है इसी से पुण्डरी का क्ष भगवान बहुत समीप रहते हुए भी यह सब सह रहे हैं!

 !!७७!! सूत जी कहते हैं ____शौनक जी इस प्रकार देवर्षि नारद के वचन सुनकर भक्ति को बड़ा आश्चर्य हुआ; फिर उसने जो कुछ कहा उसे सुनिये


 ! !!७८!! भक्ति ने कहा ____देवर से आप धन्य हैं मेरा बड़ा सौभाग्य था जो आप का समागम हुआ संसार में साधुओं का दर्शन ही समस्त सिद्धियों का परम कारण है! !

!७९!! आपका केवल एक बार का उपदेश धारण करके क्या धूकुमार प्रह्लाद ने माया पर विजय प्राप्त कर ली थी ध्रुव ने भी आपकी कृपा से ही ध्रुव पद प्राप्त किया था आप सर्वमड़ग्ल मय और साक्षात श्री ब्रह्मा जी के पुत्र है मैं आपको नमस्कार करती हूं!

 !!८०! नारद जी ने कहा____बाले तुम व्यर्थ ही अपने को क्यों खेद में डाल रही हो अरे तुम इतनी च चिन्तातुर क्यों हो भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों का चिन्तन अरे उसकी कृपा से तुम्हारा सारा दुख दूर हो जायगा!


 !!१!! जिन्होंने कौरवों के अचार से द्रौपदी की रक्षा की थी और गोप सुंन्दरियों को सनाथ किया था श्री कृष्ण कहीं चले थोड़े ही गये है! 


 !!२!! फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणों से भी प्यारी हो तुम्हारे बुलाने पर तो भगवान नीचों के घरों में भी चले आते हैं!

 !! ३!! सत्य त्रेता और द्वापर इन तीन युगों में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे किन्तु कलियुग में तो केवल भक्ति ही ब्रह्मसा मुख्य( मोक्ष) की प्राप्ति कराने वाली है! !


!४!! यह सोचकर ही परमानन्दचिन्मूर्ति ज्ञान स्वरूप श्री हरि ने अपने सत्स्वरूप से तुम्हें रचा है तुम साक्षात श्री कृष्ण चन्द्र की प्रिया और परम सुन्दरी हो!


 !!५!! एक बार जब तुमने हाथ जोड़कर पूछा था कि मैं क्या करूं तब भगवान ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि मेरे भक्तों को पोषण करो!

 !!६!! तुमने भगवान की वह आज्ञा स्वीकार कर ली इससे तुम पर श्री हरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा करने के लिए मुक्ति को तुम्हें दासी के रूप में दे दिया और इन ज्ञान वैराग्य को पुत्रों के रूप में!


 !!७!! तुम अपने साक्षात स्वरूप से वैकुण्ठ धाम में ही भक्तों का पोषण करती हो भूलोक में तो तुमने ने उनकी पुष्टि के लिये केवल छाया रूप धारण कर रखा है!


 !!८!! तब तुम मुक्ति ज्ञान और वैराग्य को साथ लिये पृथ्वी तल पर आयीं और सत्युग से द्वापर र्यन्त बड़े आनन्द से रही ! 

 !!९!! कलियुग में तुम्हारी दासी मुक्त पाखण्ड रूप रोग से पीड़ित होकर क्षीण होने लगी थी इसलिए वह तो तुरन्त ही तुम्हारी आज्ञा से वैकुण्ठ लोक को चली गयी! 


 !!१०!! इस लोक में भी तुम्हारी स्मरण करने से ही वह आती है और फिर चली जाती है किंतु इस ज्ञान वैराग्य को तुमने पुत्र मानकर अपने पास ही रख छोड़ा है!


 !!११!! फिर भी कलियुग में इनकी उपेक्षा होने के कारण तुम्हारे ये पुत्र उत्साहहिन और वृद्ध हो गये है फिर भी तुम चिंता न करो मैं इनके नवजीवन का उपाय सोचता हूं! !!

१२!! सुमुखि कलि के समान कोई भी युग नहीं है इस युग में मैं तुम्हें घर-घर में प्रत्येक पुरुष के ह्रदय में स्थापित कर दूंगा!

 !!१३!! देखो अन्य सब धर्मो को दबाकर और भक्ति विषय महोत्सवों को आगे रखकर यदि मैंने लोक में तुम्हारा प्रचार न किया तो मैं श्री हरि का दास नहीं!

 
!!१४!! इस कलियुग में जो जीव तुम से युक्त होंगे वह पापी होने पर भी बेखटके भगवान श्री कृष्ण के अभय धाम को प्राप्त होंगे!

 !!१५!! जिनके हृदय में निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है वे शुद्धान्त करण पुरुष स्व प्रेम भी यमराज को नहीं देखते!


 !!१६!! जिनके हृदय में भक्ति महारानी का निवास है उन्हें प्रेत पिशाच राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करने में भी समर्थ नहीं हो सकते!


 !!१७!! भगवान तप वेदा ध्ययन ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधनों से वश में नहीं किये जा सकते वे केवल भक्ति से वशीभूत होते है इसमें श्री गोपी जन प्रमाण है! !

!!१८!! मनुष्यों का सहस्त्रों जन्म के पुण्य प्रताप से भक्ति में अनुराग होता है कलियुग में केवल भक्ति केवल भक्ति ही सार है भक्ति से तो साक्षात श्री कृष्ण चंद्र सामने उपस्थित हो जाते हैं !

 !!१९!! जो लोग भक्ति से द्रोह करते हैं वे तीनों लोकों में दुख पाते हैं पूर्व काल में भक्त का तिरस्कार करने वाले दुर्वासा ऋषि को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था! 

 !!२०!! बस बस व्रत तीर्थ योग यज्ञ और ज्ञान चर्चा आदि बहुत से साधनों की कोई आवश्यकता नहीं है एकमात्र भक्ति ही मुक्ति देने वाली है!

 !!२१!! सूत जी कहते हैं____इस प्रकार नारद जी के निर्णय किये हुए अपने महात्म्य को सुनकर भक्ति के सारे अंग्ड़ पृष्ठ हो गये और वे उससे कहने लगी! 


 !!२२!! भक्ति ने कहा____नारद जी आप धन्य हैं आपकी मुझ में निश्चल प्रीति है मैं सदा आपकी ह्रदय में रहूंगी कभी आपको छोड़कर नहीं जाऊंगी!


 !!२३!! साधो आप बड़े कृपालु है आपने क्षण भर में ही मेरा सारा दुख दूर कर दिया किंतु अभी मेरे पुत्रों में चेतना नहीं आयी है आप इन्हें शीघ्र ही सचेत कर दीजिये जगा दीजिये! 

 !!२४!! सूत जी कहते हैं____भक्ति के ये वचन सुनकर नारद जी को बड़ी करुणा आयी और वे उन्हें हाथ से हिला डू लाकर जगाने लगे!
 

 !!२५!! फिर उनके कानके पास मुंह लगाकर जोर से कहां ओ ज्ञान जल्दी जग पड़ो वैराग्य जल्दी जग पड़ो ! 


!!२६ !!फिर उन्होंने वेद ध्वनि वेदान्तघोष और बार-बार गीता पाठ करके उन्हें जगाया इससे वे जैसे-तैसे बहुत जोर लगा कर उठे! 

 !!२७!! किन्तु आलस्य के कारण वे दोनों जॅभाई लेते रहे नेत्र उघाड़ा कर देख भी नहीं सके उनके बाल बगुलों की तरह सफेद हो गये थे उसके अग्ड़ प्राय: सुख काठ के समान निस्तेज और कठोर हो गये थे !                        जारी है अगले भाग में...

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