Bhagavad Gita

Smd facts bhagwat puran: श्री भगवान बोले______ सम्पूर्ण ज्ञानों में उत्तम और श्रेष्ठ ज्ञान को मैं फिर आऊंगा जिसको जानकर सब के सब मुनिलोग इस संसार से (मुक्त होकर) परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।

श्री -कृष्ण -ने -अर्जुन -को -सर्वश्रेष्ठ- ज्ञान -कौन- बताए -हैं


इस ज्ञान का आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं वे महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते।


हे भरतवंशोद्भव अर्जुन मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति स्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूं उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

Bhagavad Gita

हे कुन्ती नन्दन संपूर्ण योनियों में (प्राणियों के) जितने शरीर पैदा होते हैं मूल प्रकृति तो उन सब की माता है और मैं बीच स्थापन करने वाला पीता हूं।


हे महा बाहों प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्व रज और तम ये तीनों गुण अविनाशी देही (जीवात्मा) को देह में बांध देते हैं।


हे पाप रहित अर्जुन उन गुणों में सत्व गुण निर्मल (स्वच्छ)  होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है वह मुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से (देही को) बांधता है।


हे कुन्ती नन्दन तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को तुम रागस्व रूप समझो वह कर्मों की आसक्ति से देही (जीवात्मा) को बांधता है।


और हे भरतवंशी अर्जुन सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होने वाला समझो वह प्रमाद आलस्य और निद्रा के द्वारा (देह के साथ अपना सम्बन्ध मानने वालों को बांधता है।


हे भरतवंशोद्भव अर्जुन सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म लगाकर मनुष्य पर विजय करता है परन्तु तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है।


हे भरतवंशोद्भव अर्जुन रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है सत्त्वगुण और तमोगुण दबाकर रजोगुण बढ़ता है वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है।


जब इस मनुष्य शरीर में सब द्वारों (इंद्रियों और अन्त: करण) में प्रकाश (स्वच्छता) और विवेक प्रकट हो जाता है तब यह जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा हुआ है।


हे भरतवंश में श्रेष्ठ अर्जुन रजोगुण के बढ़ने पर लोभ प्रवृत्ति कर्मों का आरम्भ अशान्ति और स्पृहा ये वृत्तियां पैदा होती हैं।


हे कुरुनन्दन तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश अप्रवृत्ति तथा प्रमाद और मोह ये वृत्तियां भी पैदा होती हैं।


जिस समय सत्त्वगुण बड़ा हो उस समय यदि देहधारी मनुष्य मर जाता है तो वह उत्तम वेत्ताओं के निर्मल लोकों में जाता है।


रजोगुण के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी कर्म संगी मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़ योनियों में जन्म लेता है।


विवेकी पुरुषों ने शुभ कर्म का तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है राजस कर्मका फल दुःख कहा है और तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।


सत्त्वगुण से ज्ञान और रजोगुण से लोभ (आदि) ही उत्पन्न होते हैं तमोगुण से प्रमाद मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होते हैं।


सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य ऊध्र्व लोकों में जाते हैं रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं और निन्दनीय तमोगुण की वृत्ति  में स्थित तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं।


जब विवेकी (विचार कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और अपने को गुणों से पर अनुभव करता है तब वह मेरे सत्स्व रूप को प्राप्त हो जाता है।


देहधारी (विवेकी  मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म मृत्यु और वृद्धावस्था रूप दु:खों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है।


अर्जुन बोले____हे प्रभो इन तीनों गुणों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से युक्त होता है उसके आचरण कैसे होते हैं और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है।


श्री भगवान बोले____ हे पाण्डव प्रकाश और प्रवृत्ति तथा मोह ये सभी अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जायं तो भी गुणातीत मनुष्य इन से द्वेष नहीं करता और ये सभी निमृत्त हो जायं तो इनकी इच्छा नहीं करता।


जो उदासीन की तरह स्थित है और जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुणों में बरत रहे हैं इस भाव से जो (अपने स्वरूप में ही) स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता।


जो धीर मनुष्य दुःख सुख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है जो मिट्टी के ढेले पत्थर और सोने में  

सम रहता है जो प्रिय अप्रिय में सम रहता है जो अपनी निन्दा स्तुति में सम रहता है जो मान अपमान में सम रहता है जो मित्र शत्रु के पक्ष में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है वह मनुष्य गुणा तीत कहा जाता है।


और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्ति योग के द्वारा मेरा सेवन करता है वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।


क्योंकि ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक  सुख का आश्रय मैं ही हूं।








Post a Comment

0 Comments