श्री भगवान बोले_____यह अत्यंत गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान दोष दृष्टि रहित तेरे लिये तो मैं फिर अच्छी तरह से कहूंगा जिसको जानकर तू अशुभ से अर्थात जन्म मरण रूप संसार से मुक्त हो जायगा !
यह (विज्ञान सहित) ज्ञान अर्थात समग्र रूप) संपूर्ण विद्याओं का राजा और संपूर्ण गोपनीयों का राजा है यह अनोखा अति पवित्र तथा अति श्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है यह धर्म मय है अविनाशी है और करने में बहुत सुगम है अर्थात इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है !
हे परन्तप इस धर्म की महिमा पर श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्यु रूप संसार के मार्ग में लौटते रहते हैं अर्थात बार-बार जन्मते मरते रहते हैं !
यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूप से व्याप्त है संपूर्ण प्राणी मुझमें स्थित है परंतु मैं उनमें स्थित नहीं हूं तथा वे प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं है मेरे ईश्वर सम्बन्धी योग (सामर्थ्य) को देख संपूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला और प्राणियों का धारण भरण पोषण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है !
जैसे सब जगह विचरने वाली महान वायु नित्य ही आकाश में स्थित रहती है ऐसे ही संपूर्ण प्राणी मुझ में ही स्थित रहते हैं ऐसा तुम मान लो !
हे कुन्ती नन्दन कल्पों का क्षय होने पर (महाप्रलय के समय) संपूर्ण प्राणी मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्पों के आदि में (महा सर्ग के समय) मैं फिर उनकी रचना करता हूं !
प्रकृति के वश में होने से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणिसमुदाय की (कल्पों के आदि में) मैं अपनी प्रकृति को वश में करके बार-बार रचना करता हूं !
हे धनंजय उन (सृष्टि रचना आदि) कर्मों में अनासक्त और उदासीन की तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बांधते !
प्रकृति मेरी अध्यक्षता में चराचर सहित संपूर्ण जगत की रचना करती है हे कुन्ती नन्दन इसी हेतु से जगत का (विविध प्रकार से) परिवर्तन होता है !
मूर्ख लोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियों के महान ईश्वर रूप श्रेष्ठ भाव को न जानते हुए मुझे मनुष्य शरीर के आश्रित मानकर अर्थात साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं !
जो आसुरी राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का ही आश्रय लेते हैं ऐसे अविवेकी मनुष्यों की सब आशाएं व्यर्थ होती हैं सब शुभ कर्म व्यर्थ होते हैं और सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात उनकी आशाएं कर्म और ज्ञान (समझ) सत् फल देने वाले नहीं होते !
परन्तु हे पृथानन्दन दैवी प्रकृति के आश्रित अनन्य मन वाले महात्मा लोग मुझे संपूर्ण प्राणियों का आदि और अविनाशी समझ कर मेरा भजन करते हैं !
नित्य निरन्तर मुझमें लगे हुए मनुष्य दृढ़ व्रती होकर लगनपूर्वक साधन में लगे हुए और प्रेम प्रेम पूर्वक कीर्तन करते हुए तथा मुझे नमस्कार करते हुए निरन्तर मेरी उपासना करते हैं !
दूसरे साधक ज्ञान यज्ञ के द्वारा एकी भाव से (अभेदभाव से) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे भी कई साधक (अपने को) पृथक मानकर चारों तरफ मुख वाले मेरे विराट रूप की अर्थात संसार को मेरा विराट रूप मानकर सेव्य सेवक भाव से मेरी अनेक प्रकार से उपासना करते हैं !
क्रतु मैं हूं यज्ञ मैं हूं स्वधा मैं हूं औषध मैं हूं मंत्र मैं हूं घृत मैं हूं अग्नि मैं हूं और हवन रूप क्रिया भी मैं हूं जानने योग्य पवित्र ओंकार ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूं इस सम्पूर्ण जगत का पिता धाता माता पितामह गति भरता भर्ता प्रभु साक्षी निवास आश्रय सुह्रद उत्पत्ति प्रलय स्थान निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं !
हे अर्जुन (संसार के हित के लिये) मैं ही सूर्य रूप से तपता हूं मैं ही जल को ग्रहण करता हूं और (फिर उस जल को मैं ही) वर्षा रूप से बरसा देता हूं (और तो क्या कहूं) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत भी मैं ही हूं !
तीनों वेदों में कहे हुए सकाम अनुष्ठान को करने वाले और सोमरस को पीने वाले जो पाप रहित मनुष्य यज्ञों के द्वारा (इन्द्र रूप से) मेरा पूजन करके स्वर्ग प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं वे (पुण्यों के फल स्वरुप) पवित्र इन्द्र लोक को प्राप्त करके वहां स्वर्ग के देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं !
वे उस विशाल स्वर्ग लोक के भोगों को भोग कर पूण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में आ जाते हैं इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए सकाम धर्म का आश्रय लिए हुए भोगों की कामना करने वाले मनुष्य आवागमन को प्राप्त होते हैं !
जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भली भांति उपासना करते हैं मुझ में निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योग क्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूं !
हे कुन्ती नन्दन जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धा पूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करते हैं वे भी मेरा ही पूजन करते हैं पर करते हैं अविधि पूर्वक अर्थात देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं !
क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं परन्तु वे मुझे तत्त्व से नहीं जानते इसी से उनका पतन होता हैं !
(सकामभाव से) देवताओं का पूजन करने वाले (शरीर छोड़ने पर) देवताओं का प्राप्त होते हैं पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं भूत प्रेतों का पूजन करने वाले भूत प्रेतों को प्राप्त होते हैं परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं !
जो भक्त पत्र पुष्प फल जल आदि (यथा साध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु) को प्रेम पूर्वक मेरे अर्पण करता है उस मुझ में तल्लीन हुए अन्त करण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूं अर्थात स्वीकार कर लेता हूं !
हे कुन्ती पुत्र तू जो कुछ करता है जो कुछ भोजन करता है जो कुछ यज्ञ करता है जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है वह सब मेरे अर्पण कर दे !
इस प्रकार (मेरे अर्पण करने से) कर्म बंधन से और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मों के फलों से तू मुक्त हो जायगा ऐसे अपने सहित सब कुछ मेरे अर्पण करने वाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू तुझे प्राप्त हो जायगा !
मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूं (उन प्राणियों में) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है परन्तु जो प्रेम पूर्वक मेरा भजन करते हैं वे मुझ में है और मैं भी उनमें हूं !
अगर कोई दुराचारी से दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है!
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहने वाली शांति को प्राप्त हो जाता है हे कुन्ती नन्दन मेरे भक्त का पतन नहीं होता ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो !
हे पृथानन्दन जो भी पापयोंनि वाले हो तथा जो भी स्त्रियां वैश्य और शूद्र हो वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसंदेह परम गति को प्राप्त हो जाते हैं !
जो पवित्र आचरण करने वाले ब्राह्मण और ऋषि स्वरूप क्षत्रिय भगवान के भक्त हो (वे परम गति को प्राप्त हो जायं) इसमें तो कहना ही क्या है इसलिये इस अनित्य और मुख रहित शरीर को प्राप्त करके तू मेरा भजन कर !
तू मेरा भक्त हो जा मुझ में मनवाला हो जा मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर इस प्रकार अपने आपको मेरे साथ लगा कर मेरे परायण हुआ तू मुझे ही प्राप्त होगा !
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