श्री कृष्ण ने मुक्ति के दो उपाय क्या बताये हैं !

 अर्जुन बोले_____ हे पुरुषोत्तम वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है कर्म क्या है अधिभूत किसको कहा गया है और अधिदैव  किसको कहा जाता है यहां अधियज्ञ  कौन हैं और वह इस देह में कैसे हैं हे मधुसूदन वशीभूत अन्तः करण वाले मनुष्यों के द्वारा अन्त काल में आप कैसे जानने में आते हैं !

श्री- कृष्ण- ने -मुक्ति- के- दो -उपाय- क्या- बताये- हैं !


परम अक्षर ब्रह्म है और परा प्रकृति (जीव) को अध्यात्म कहते हैं प्राणियों की सत्ता को प्रकट करने वाला त्याग कर्म कहा जाता है !


हे देह धारियों में श्रेष्ठ अर्जुन क्षर भाव अर्थात नाशवान पदार्थ अधिभूत है पुरुष अर्थात हिरण्यगर्भ  ब्रह्मा अधिदैव है और इस देह में (अन्तर्यामी रूप से) मैं ही अधियज्ञ हूं !


जो मनुष्य अन्तकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है वह मेरे स्वरूप को ही प्राप्त होता है इसमें संदेह नहीं है !


हे कुन्ती पुत्र अर्जुन मनुष्य अन्तकाल  में जिस जिस भी भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह उस (अन्तकाल  के) भाव से सदा भावित होता हुआ उस  उसको ही प्राप्त होता  है अर्थात उस उस योनि में ही चला जाता है !


इसलिये तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर मुझ में मन और बुद्धि अर्पित करने वाला तू निःसंदेह मुझे ही प्राप्त होगा !


हे पृथानन्दन अभ्यास योग से युक्त और अन्य का चिन्तन न करने वाले चित्त से परम दिव्य पुरुष का चिंतन करता हुआ (शरीर छोड़ने वाला मनुष्य) उसी को प्राप्त हो जाता है !


जो सर्वज्ञ अनादि सब पर शासन करने वाला सूक्ष्म से अत्यंत सूक्ष्म सबका धारण पोषण करने वाला अज्ञान से अत्यंत परे सूर्य की तरह प्रकाश स्वरूप अर्थात ज्ञान स्वरूप  ऐसे अचिंत्य स्वरूप का चिन्तन करता है!


वह भक्ति युक्त मनुष्य अन्त समय में अचल मन से और योग बल के द्वारा भृकुटी के मध्य में प्राणों को   अच्छी तरह से प्रविष्ट करके (शरीर छोड़ने पर) उस परम दिव्य पुरुष को ही प्राप्त होता  है !


वेद वेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं वीतराग यति जिसको प्राप्त करते हैं और साधक जिसकी प्राप्ति की इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं वह पद मैं तेरे लिये संक्षेप से कहूंगा !


(इन्द्रियों के) सम्पूर्ण द्वारों को रोककर मन का हृदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तक में  स्थापित करके योग धारणा में सम्यक  प्रकार से स्थित हुआ जो साधक 🕉️  इस एक अक्षर  ब्रह्म का (मानसिक) उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है वह परम गति को प्राप्त होता है !


हे पृथानन्दन अनन्य चित्त वाला जो मनुष्य मेरा नित्य निरन्तर स्मरण करता है उस नित्य निरन्तर मुझ में लगे हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूं अर्थात उसको सुलभता से प्राप्त हो जाता हूं !


महात्मा लोग मुझे प्राप्त करके दुःखालय अर्थात दु:खों के घर और अशाश्वत अर्थात निरन्तर बदलने वाले पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते क्योंकि वे परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं अर्थात उनको परम प्रेम की प्राप्ति हो गयी है !


 हे अर्जुन ब्रह्म लोक तक सभी लोक पुनरावर्ती  वाले हैं अर्थात वहां जाने पर पुनः लौट कर संसार में आना पड़ता है परन्तु हे कौन्तेय  मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता !


जो मनुष्य ब्रह्मा के एक हजार चतुर्युगी वाले  एक दिन को और एक हजार चतुर्युगी वाली एक रात्रि को जानते हैं वे मनुष्य ब्रह्मा के दिन और रात को जानने वाले हैं !


ब्रह्मा के दिन के  आरम्भ काल में अव्यक्त (ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर) से सम्पूर्ण शरीर पैदा होते हैं और ब्रह्मा की रात के आरम्भ काल में उस अव्यक्त नाम वाले (ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर) में ही सम्पूर्ण शरीर  लीन हो जाते हैं !


हे पार्थ वही यह प्राणि समुदाय उत्पन्न हो होकर प्रकृति के परवश हुआ ब्रह्मा के दिन के समय उत्पन्न होता है और ब्रह्मा की रात्रि के समय लीन होता है !


परन्तु उस अव्यक्त (ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर) से अन्य (विलक्षण) अनादि अत्यन्त श्रेष्ठ भाव रूप जो अव्यक्त (ईश्वर) है वह सम्पूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता !


उसी को अव्यक्त और अक्षर ऐसा कहा गया है तथा उसी को परम गति कहा गया है और जिसको प्राप्त होने पर जीव फिर लौटकर संसार में नहीं आते वह मेरा परम धाम है !


हे पृथानन्दन अर्जुन सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है!


परन्तु हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन जिस काल अर्थात मार्ग में शरीर छोड़कर गये हुए योगी अनावृत्ति को  प्राप्त होते हैं अर्थात पीछे लौट कर नहीं आते और जिस मार्ग में गये हुए आवृत्ति को प्राप्त होते हैं अर्थात पीछे लौट कर आते हैं उस काल को अर्थात दोनों मार्गों को मैं कहूंगा !


जिस मार्ग में प्रकाश स्वरूप अग्नि का अधिपति देवता दिन का अधिपति देवता शुक्ल पक्ष का अधिपति देवता और छः महीनों वाले उत्तरायण का अधिपति देवता है उस मार्ग से शरीर छोड़कर गये हुए ब्रह्म वेत्ता पुरुष (पहले ब्रह्म लोक को प्राप्त होकर पीछे ब्रह्मा के साथ) ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं !


जिस मार्ग में धूम का अधिपति देवता रात्रि का अधिपति देवता कृष्ण पक्ष का अधिपति देवता और छः महीनों वाले दक्षिणायन का अधिपति देवता है शरीर छोड़कर उस मार्ग से गया हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात जन्म मरण को प्राप्त होता है !


क्योंकि शुक्ल और कृष्ण ये दोनों गतियां अनादि काल से जगत (प्राणिमात्र) के साथ सम्बन्ध  रखने वाली मानी गयी है इनमें से एक गति में जाने वाले को लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गति में जाने वाले को पुनः लौटना पड़ता है !


हे पृथानन्दन इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता अतः हे अर्जुन तू सब समय में योग युक्त  (समता में स्थित) हो जा !


योगी ( भक्त ) इसको ( इस अध्याय में वर्णित विषय को ) जानकर वेदों में यज्ञों में तपों में  तथा दान में जो जो पूण्य फल कहे गये हैं उन सभी पुण्य फलों का अतिक्रमण कर जाता है और आदि स्थान परमात्मा को प्राप्त हो जाता है !

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