श्री भगवान बोले_____ हे पृथानन्दन मुझ में आसक्त मनवाला मेरे आश्रित होकर योग का अभ्यास करता हुआ तू मेरे जिस समग्र रूप को निःसंदेह जिस प्रकार से जानेगा उसको (उसी प्रकार से) सुन !
तेरे लिये मैं यह विज्ञान सहित ज्ञान संपूर्णता से कहूंगा जिसको जानने के बाद फिर इस विषय में जानने योग्य अन्य (कुछ भी) शेष नहीं रहेगा !
हजारों मनुष्यों में कोई एक सिद्धि (कल्याण)के लिये यत्न करता है और उन यत्न करने वाले सिद्धों (मुक्त पुरुषों) में कोई एक ही मुझे यथार्थ रूप से जानता है !
पृथ्वी जल तेज वायु आकाश(---- ये पंचमहाभूत) और मन बुद्धि तथा अहंकार इस प्रकार यह आठ प्रकार के भेदों वाली मेरी यह अपरा प्रकृति है और हे महाबा हो इस अपरा प्रकृति से भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्राकृति को जान जिसके द्वारा यह जगत धारण किया जाता है !
संपूर्ण प्राणियों के उत्पन्न होने में अपरा और परा इन दोनों प्रकृतियों का संयोग ही कारण है ऐसा तुम समझो मैं संपूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूं !
इसलिये हे धनंजय मेरे सिवाय (इस जगत का) दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी (कारण तथा कार्य) नहीं है जैसे सूत की मणियां सूत के धागे में पिरोयी हुई होती है ऐसे ही यह संपूर्ण जगत मुझमें ही ओत प्रोत है
हे कुन्ती नन्दन जलों में रस मैं हूं चंद्रमा और सूर्य में प्रभा (प्रकाश) मैं हूं सम्पूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार) आकाश में शब्द और मनुष्यों में पुरुषत्व मैं हूं !
पृथ्वी में पवित्र गन्ध मैं हूं और अग्नि में तेज मैं हूं तथा सम्पूर्ण प्राणियों में जीवनी शक्ति मैं हूं और तपस्वियों में तपस्या मैं हूं !
हे पृथानन्दन सम्पूर्ण प्राणियों का अनादि बीज मुझे जान बुद्धिमानों में बुद्धि और तेजस्वियों में तेज मैं हूं !
हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन बलवानों में काम और राग से रहित बल मैं हूं और प्राणियों में धर्म से अनिरुद्ध (धर्मयुक्त) काम मैं हूं !
(और तो क्या हूं) जितने भी सात्त्विक भाव है और जितने भी राजस तथा तामस भाव है वे सब मुझसे ही होते हैं ऐसा उनको समझो परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं है !
किन्तु इन तीनों गुण रूप भावों से मोहित यह सम्पूर्ण जगत (प्राणिमात्र) इन गुणों से अतीत और अविनाशी मुझे नहीं जानता !
क्योंकि मेरी यह गुण मयी दैवी माया दुरत्यय है अर्थात इससे पार पाना बड़ा कठिन है जो केवल मेरे ही शरण होते हैं वे इस माया को तर जाते हैं !
परन्तु माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा गया है वे आसुर भाव का आश्रय लेने वाले और मनुष्यों में महान नीच तथा पाप कर्म करने वाले मूढ़ मनुष्य मेरे शरण नहीं होते !
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन पवित्र कर्म करने वाले अर्थार्थी आर्त जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात प्रेमी ये चार प्रकार के मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात मेरे शरण होते हैं !
उन चार भक्तों में मुझ में निरन्तर लगा हुआ अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी अर्थात प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है क्योंकि ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय हूं और वह मुझे अत्यन्त प्रिय हैं !
पहले कहे हुए सब के सब (चारों) ही भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाव वाले) हैं परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है कारण कि वह मुझसे अभिन्न है और जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है ऐसे मुझ में ही दृढ़ स्थित है !
बहुत जन्मों के अन्तिम जन्म में अर्थात मनुष्य जन्म में सब कुछ परमात्मा ही है इस प्रकार जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है !
iपरन्तु उन उन कामनाओं से जिनका ज्ञान हरा गया है ऐसे मनुष्य अपनी अपनी प्रकृति अर्थात स्वभाव से नियंत्रित होकर उस उस अर्थात देवताओं के उन उन नियमों को धारण करते हुए अन्य देवताओं के शरण हो जाते हैं !
जो जो भक्त जिस जिस देवता का श्रद्धा पूर्वक पूजन करना चाहता है उस उस देवता में ही मैं उसी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूं !
उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई) श्रद्धा से युक्त होकर वह मनुष्य उस देवता की (सकामभाव पूर्वक) उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है परन्तु वह कामनापूर्ति मेरे द्वारा ही विहित की हुई होती है !
परन्तु उन तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्तवाला (नाशवान) ही मिलता है देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं !
बुद्धिहीन मनुष्य मेरे परम अविनाशी और सर्वश्रेष्ठ भाव को न जानते हुए अव्यक्त (मन इंद्रियों से पर) मुझ सच्चिदानंद घन परमात्मा को मनुष्य की तरह शरीर धारण करने वाला मानते हैं !
यह जो मूढ़ मनुष्य समुदाय मुझे अज और अविनाशी ठीक तरह से नहीं जानता (मानता) उन सबके सामने योगमाया से अच्छी तरह ढका हुआ मैं प्रकट नहीं होता !
हे अर्जुन जो प्राणी भूतकाल में हो चुके हैं तथा जो वर्तमान में है और जो भविष्य में होंगे उन सब प्राणियों को तो मैं जानता हूं परन्तु मुझे (भक्त के सिवाय) कोई भी प्राणी नहीं जानता !
कारण कि हे भरतवंश में उत्पन्न शत्रुता पन अर्जुन इच्छा (राग) और द्वेष से उत्पन्न होने वाले द्वन्द्व मोह से
मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसार में (अनादिकाल से) मूढ़ता को अर्थात जन्म मरण को प्राप्त हो रहे हैं !
परन्तु जिन पुण्य कर्मा मनुष्यों पाप नष्ट हो गये हैं वे द्वन्द्व मोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़ व्रती होकर मेरा भजन करते हैं !
वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं वे उस ब्रह्म को सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जान जाते हैं जो मनुष्य अधिभूत तथा आधिदैविके साहित और अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं वे मुझमें लगे हुए चित्त वाले मनुष्य अन्तकाल में भी मुझे ही जानते हैं अर्थात प्राप्त होते हैं !
0 Comments