श्री कृष्ण ने आत्म उद्यार के लिये क्या कहा


 श्री भगवान बोले_____कर्म फल का आश्रय न लेकर जो कर्तव्य कर्म करता है वही संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं होता !
श्री- कृष्ण- ने- आत्म- उद्यार-  के- लिये -क्या- कहा


हे अर्जुन लोग जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं उसी को तुम योग समझो क्योंकि संकल्पों का त्याग किये बिना मनुष्य कोई सा भी योगी नहीं हो सकता !

जो योग (समता) में आरुढ़ होना चाहता है ऐसे मननशील योगी के लिये कर्तव्य कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्य का शम (शान्ति) परमात्म प्राप्ति में कारण कहा गया है !


कारण कि जिस समय न इन्द्रियों के भोगों में तथा न कर्मों में ही आसक्त  होता है उस समय वह संपूर्ण संकल्पों का त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है !

अपने द्वारा अपना उद्धार करे अपना पतन न करें क्योंकि आप ही अपना मित्र है  और आप ही अपना शत्रु है!


जिसने अपने आपसे  अपने आप को जीत लिया है उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने आप को नहीं जीता है ऐसे अनात्मा का आत्मा ही शत्रुता में शत्रु की तरह बर्ताव करता है !


जिसने अपने पर विजय कर ली हैं उस शीत उष्ण (अनुकूलता प्रतिकूलता) सुख-दु:ख तथा मान अपमान में निर्विकार मनुष्य को परमात्मा नित्यप्राप्त है !

जिसका अंतःकरण ज्ञान विज्ञान से तृप्त है जो कूटकी तरह निर्विकार है जितेन्द्रय है और मिट्टी ढेले पत्थर तथा स्वर्ण में समबुद्धिवाला है ऐसा योगी युक्त (योगारूढ़)  कहा जाता है !


सुहृद मित्र वैरी उदासीन मध्यस्थ द्वेष और सम्बन्धियों में तथा साधु आचरण करने वालों में और पाप आचरण करने वालों में भी समबुद्धि वाला मनुष्य श्रेष्ठ है !

भोग बुद्धि से संग्रह न  करने वाला इच्छा रहित और अन्तः करण तथा शरीर को वश में रखने वाला योगी अकेला एकान्त में स्थित होकर मन को निरन्तर (परमात्मा में) लगाये !


शुद्ध भूमि पर जिस पर (क्रमशः) कुश मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं जो न अत्यंत ऊंचा है और न अत्यंत नीचा ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके

उस आसन पर बैठकर चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तः करण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे


काया सिर और गले को सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओं को न देख कर केवल अपनी नासिका के  अग्रभाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठे 

जिसका अन्त: करण शान्त है जो भय रहित है और जो ब्रह्माचारिव्रत में स्थित है ऐसा सावधान ध्यान योगी मन का संयम करके मुझ में चित्त लगाता हुआ मेरे परायण हो कर बैठे !


वश में किये हुए मनवाला योगी मन को इस तरह से सदा (परमात्मा में) और लगाता हुआ मुझ में सम्यक स्थिति वाली जो निर्वाण परमा शान्ति है उसको प्राप्त हो जाता है !


हे अर्जुन यह योग न तो अधिक खाने वाले का और न बिल्कुल न खाने वाले का तथा न अधिक सोने वाले का और न बिल्कुल न सोने वाले का ही सिद्ध होता है!


दु:खों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार और विहार करने वाले का कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का तथा यथायोग्य सोने और जागने वाले का ही सिद्धि होता है !

वश में किया हुआ चित्त जिस काल में अपने स्वरूप में ही स्थित हो जाता है और स्वयं संपूर्ण पदार्थों से नि:स्पृह हो जाता है उस काल में वह योगी है ऐसा कहा जाता है !


जैसे स्पन्दन रहित वायु के स्थान में स्थित दीपक की लौ चेष्टा रहित हो जाती है योग का अभ्यास करते हुए वश में किये हुए चित्त वाले योगी के चित्त की वैसी ही उपमा कही गयी है !

योग का सेवन करने से जिस अवस्था में निरुद्ध  चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्था में स्वयं अपने आपसे अपने आपको देखता हुआ अपने आप में ही संतुष्ट हो जाता है !


जो सुख अआत्यन्तिक अतीन्द्रिय और बुद्धि ग्राह्म है उस सुख का जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस सुख में स्थित हुआ यह ध्यान योगी तत्त्व से फिर कभी विचलित नहीं होहोता!


जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता और जिस में स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता !


जिसमें दु:खों के संयोग का ही वियोग है उसी को योग नाम से जानना चाहिये (वह योग जिस ध्यान योग का लक्ष्य है) उस ध्यान योग का अभ्यास न उकताये  हुए चित्त से निश्चय पूर्वक करना चाहिये !

संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग करके और मन से ही इन्द्रिय समूह को सभी ओर से हटाकर !


धैर्य युक्त बुद्धि के द्वारा (संसार से) धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि) को परमात्म स्वरुप में सम्यक प्रकार से स्थापक करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे !

यह अस्थिर और चंचल मन जहां जहां विचरण करता है वहां वहां से हटाकर इसको एक परमात्मा में ही भली-भांति लगाये !


जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं जिसका रजोगुण शांत हो गया है तथा जिसका मन सर्वथा शान्त (निर्मल) हो गया है ऐसे इस ब्रह्म रूप बने हुए योगी को निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है!


इस प्रकार अपने आपको सदा परमात्मा में लगाता हुआ  पाप रहित योगी सुख पूर्वक ब्रह्म प्राप्ति रूप अत्यंत सुख का अनुभव कर लेता है !

सब जगह अपने स्वरूप को देखने वाला और ध्यान योग से युक्त अन्तः करण वाला (सांख्य योगी) अपने स्वरूप को संपूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है और संपूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप में देखता है !


जो (भक्त) सब में मुझे देखता है और मुझे में सब को देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है !

मुझ में एकी भाव से स्थित हुआ जो भक्ति योगी संपूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा भजन करता है वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझ में ही बर्ताव कर रहा है अर्थात वह नित्य निरंतर मुझ में ही स्थित है !


हे अर्जुन जो (भक्त) अपने शरीर की उपमा से सब जगह मुझे समान देखता है और सुख अथवा दुःख को भी समान देखता है वह परम योगी माना गया है !


अर्जुन बोले_____हे मधुसूदन आपने समता पूर्वक जो यह योग कहा है मन की चंचलता के कारण मैं इस योग की स्थिर स्थिति नहीं देखता हूं !

कारण कि हे कृष्ण मन (बड़ा ही) चंचल प्रमथ शील दृढ़ (जिद्दी) और बलवान है उसको रोकना मैं (आकाश में स्थित) वायु की तरह अत्यंत कठिन मानता हूं !


श्री भगवान भोले_____हे महाबा हो यह मन बड़ा चंचल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है परंतु हे कुन्ती नन्दन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह किया जाता है !

जिसका मन पूरा वश में नहीं है उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है परंतु उपाय पूर्वक यत्न करने वाले तथा वश में किये हुए मनवाले  साधक को योग प्राप्त हो सकता है ऐसा मेरा मत है !


अर्जुन बोले_____हे कृष्ण जिसकी  साधन में श्रद्धा है पर जिसका प्रयत्न शिथिल है वह (अन्त समय में) अगर योग से विचलित हो जाय तो वह योग सिद्धि को प्राप्त न करके किस गति को चला जाता है !


हे महाबा हो संसार के आश्रय से रहित और परमात्म प्राप्ति के मार्ग में मोहित अर्थात विचलित इस तरह दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता !


हे कृष्ण मेरे इस सन्देह का सर्वथा छेदन करने के लिये आप ही योग्य हैं क्योंकि इस संशय का छेदन  करने वाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता !

श्री भगवान भोले_____हे पृथानन्दन उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश  होता है क्योंकि हे  प्यारे कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को नहीं जाता !


वह योग भ्रष्ट पूण्य कर्म करने वालों के लोकों को   प्राप्त होकर और वहां बहुत वर्षों तक रहकर फिर यहां शुद्ध (ममता रहित) श्रीमानों  के घर में जन्म लेता है !

अथवा (वैराग्य वान योग भ्रष्ट) ज्ञानवान योगियों के कुल में ही जन्म लेता है इस प्रकार का जो यह जन्म है यह संसार में निःसंदेह बहुत ही दुर्लभ है !


हे कुरुनन्दन वहां पर उसको पिछले मनुष्य जन्म की साधन संपत्ती (अनायास ही) प्राप्त हो जाती है फिर उससे (वह) साधन की सिद्धि के विषय में पुनः (विशेषता से) यत्न करता है ! 


वह (श्री मानों के) घर में जन्म लेने वाला योग भ्रष्ट मनुष्य) भोगों के परवश  होता हुआ  भी उस पहले मनुष्य जन्म में किये हुए अभ्यास (साधन) के कारण ही (परमात्मा की तरफ) खींच जाता है क्योंकि योग (समता) का विज्ञासु भी वेदों में कहे हुए सकाम  कर्मों का अतिक्रमण कर जाता है !

परंतु जो योगी प्रयत्न पूर्वक यत्न करता है और जिस के पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मों से सिद्ध हुआ है वह योगी फिर परम गति को प्राप्त हो जाता है!


(सकाम भाववाले) तपस्वियों से भी योगी श्रेष्ठ है ज्ञानियों से भी योगी श्रेष्ठ है और कर्मियों से भी योगी श्रेष्ठ हैं ऐसा मेरा मत है अतः हे अर्जुन तू  योगी हो जा


संपूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धा वान भक्त मुझमें तल्लीन हुए  मन से मेरा भजन करता है वह मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी है !






 



Post a Comment

0 Comments