!!१९!! सूत जी कहते हैं_____ बहुत से नट नाचने वाले गाने वाले विरद बखानने वाले सूत मागध और वंदीजन भगवान श्री कृष्ण के अद्भुत चरित्रों का गायन करते हुए चले !
!!२०!! भगवान श्री कृष्ण ने बन्धु बान्धुवों नागरिकों को और सेवकों से उनकी योग्यता के अनुसार अलग-अलग मिलकर सब का सम्मान किया !
!!२१!! किसी को सिर झुका कर प्रणाम किया किसी को वाणी से अभिवादन किया किसी को हृदय से लगाया किसी से हाथ मिलाया किसीकी ओर देखकर मुस्करा भर दिया और किसी को केवल प्रेम भरी दृष्टि से देख लिया जिसकी जो इच्छा थी उसे वही वरदान दिया इस प्रकार चाण्डाल पर्यंन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन सपन्तीक ब्राम्हण और वृद्धों का तथा दूसरे लोगों का भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनों से विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रेवश किया!
!!२२-२३!! शौनक जी जिस समय भगवान राजमार्ग से जा रहे थे उस समय द्वारका की कुल कामिनियां भगवान के दर्शन को ही परमान्द मानकर अपनी अपनी अटारियों पर चढ़ गयीं !
!!२४!! भगवान का वक्ष: स्थल मूर्तिमान सौंदर्य लक्ष्मी का निवास स्थान है उनका मुखारविंद नेत्रों के द्वारा पान करने के लिए सौंदर्य सुधार से भरा हुआ पात्र है उनकी भुजाएं लोकपालों को भी शक्ति देने वाली है उनके चरण कमल भक्त पर हंसों के आश्रय हैं उनके अग्ड़ अग्ड़ शोभा के धाम है भगवान की इस छवि को द्वारका वासी नित्य निरंतर निहारते रहते हैं फिर भी उनकी आंखें एक क्षण के लिए भी तृप्त नहीं होती !
!!२५!!-२६!! द्वारका के राजपथ पर भगवान श्री कृष्ण के ऊपर श्वेत वर्ण का छत्र तना हुआ था श्वेत चंवर डुलाये जा रहे थे चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी वे पीताम्बर और वनमाला धारण किए हुए थे इस समय वे ऐसे शोभा यमान हुए मानो श्याम मेघ एक ही साथ सुर्य चंद्रमा इंद्रधनुष और बिजली से शोभायमान हो !
!!२७!! भगवान सबसे पहले अपने माता पिता के महल में गए वहां उन्होंने बड़े आनन्द से देवकी आदि सातों माताओं को चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओं ने उन्हें अपने ह्रदय से लगा कर गोद में बैठा लिया स्नेह के कारण उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगी उनका हृदय हर्ष से विहल हो गया और वे आनन्द के आंसुओं से उनका अभिषेक करने लगीं !
!!२८-२९!! माताओं से आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग सामग्रियों से संपन्न सर्वश्रेष्ठ भवन में गए उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे !
!!३०!! अपने प्राणनाथ भगवान श्री कृष्ण को बहुत दिन बाहर रहने के बाद घर आया देखकर रानियों के ह्रदय में बड़ा आनन्द हुआ उन्हें अपने निकट देखकर वे एका एक ध्यान छोड़कर उठ खड़ी हुई उन्होंने केवल आसन को ही नहीं बल्कि उन नियमों को भी त्याग दिया जिन्हें उन्होंने पति के प्रवासी होने पर ग्रहण किया था उस समय उनके मुख और नेत्रों में लज्जा छा गयी !
!!३१!! भगवान के प्रति उनका भाव बड़ा ही गंभीर था उन्होंने पहले मन ही मन फिर नेत्रों के द्वारा और तत्पश्चात पुत्रों के बहाने शरीर से उनका आलिग्ड़न किया शौनक जी उस समय उनके नेत्रों में जो प्रेम के आंसू छलक आये थे उन्हें सक्डो़चवश उन्होंने बहुत रोका फिर भी विवशता के कारण वे ढलक ही गये !
!!३२!! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण एकान्त में सर्वदा ही उनके पास रहते थे तथापि उनके चरण कमल उन्हें पद पद पर नए-नए जान पड़ते भला स्वभाव से ही चच्ञल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षण के लिए भी कभी नहीं छोड़ती उनकी संनिधि से किस स्त्री की तृप्ति हो सकती है !
!!३३!! जैसे वायु बांसों के संघर्ष से दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है वैसे ही पृथ्वी के भारभूत और शक्तिशाली राजाओं में परस्पर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किए ही भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें कई अक्षौहिणी सेना सहित एक दूसरे से मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये !
!!३४!! साक्षात परमेश्वर ही अपनी लीला से इस मनुष्य लोक में अवतीर्ण हुए थे और सहस्त्रों रमणी रत्नों में रहकर उन्होंने साधारण मनुष्य की तरह क्रीडा की !
!!३५!! जिनकी निर्मल और मधुर हंसी उनके हृदय के उन्मुक्त भावों को सूचित करने वाली थी जिनकी
लजीली चितवन की चोट से बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेव ने भी अपने धनुष का परित्याग कर दिया था वे कमनीय कामिनियां अपने काम विलासों से जिन के मन में तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं उन असग्ड़ भगवान श्रीकृष्ण को संसार के लोग अपने ही समान कर्म करते देख कर आसक्त मनुष्य समझते हैं यह उनकी मूर्खता है !
!!३६-३७!! यही तो भगवान की भगवत्ता है की वे प्रकृति में स्थित होकर भी उसके गुणों से कभी लिप्त नहीं होते जैसे भगवान की शरणागत बुद्धि अपने में रहने वाले प्राकृत गुणों से लिप्त नहीं होती !
!!३८!! वे मूढ़ स्त्रियां भी श्री कृष्ण को अपना एकान्त सेवी स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थी क्योंकि वे अपने स्वामी के ऐव्श्रर्य को नहीं जानती थी ठीक वैसे ही जैसे अहंकार की वृत्तियां ईश्वर को अपने धर्म से युक्त मानती है !
!!३९!! शौनक जी ने कहा____अश्वत्थामाने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था उससे उत्तराका गर्भ नष्ट हो गया था परंतु भगवान ने उसे पुनः जीवित कर दिया !
!!१!! उस गर्भ से पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित के जिन्हें सुकदेव जी ने ज्ञानोपदेश दिया था जन्म कर्म मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हमलोग बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं !
सूतजी ने कहा____धर्म राज युधिष्ठिर अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए पिता के समान उसका पालन करने लगे भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से नि:स्पृह हो गये थे !
!!४!! शौनकादि ऋषियो उनके पास अतुल संपत्ति थी उन्होने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकों का अधिकार प्राप्त किया था उनकी रानियां और भाई अनुकूल थे सारी पृथ्वी उनकी थी वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्ग तक फैली हुई थी !
!!५!! उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी जिसके लिए देवता लोग भी लालायित रहते हैं परंतु जैसे भूख मनुष्य को भोजन के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते वैसे ही उन्हें भगवान के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी !
!!६!! शौनक जी उत्तरा के गर्भ में स्थित वह वीर शिशु परीक्षित जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के तेजसे जलने लगा तब उसने देखा कि उसकी आंखों के सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है !
!!७!! वह देखने में तो अंगूठे भर का है परंतु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है अत्यंत सुंदर श्याम शरीर है बिजली के समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है सिर पर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है उस निर्विकार पुरुष के बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएं है कानों में तपाये हुए स्वर्ण के सुन्दर कुण्डल है आंखों में लालिमा है हाथ में लूकेके समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशु के चारों ओर घूम रहा है !
!!८-९!! जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को भगा देते हैं वैसे ही वह उस गदा के द्वारा ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करता जा रहा था उस पुरुष को अपने समीप देखकर वह गर्भ स्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है!
!!१०!! इस प्रकार उस दस मास के गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्म रक्षक अप्रमेय भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करके वहीं अन्तर्ध्यान हो गये !
!!११!! तदनन्तर अनुकूल ग्रहों के उदय से युक्त समस्त सदगुणों को विकसित करने वाले शुभ समय में पाण्डु के वंशधर परीक्षित का जन्म हुआ जन्म के समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था मानो स्वयं पाण्डु ने ही फिर से जन्म लिया हो !
!!१२!! पौत्र के जन्म की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मन में बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने धौम्य कृपाचार्य आदि ब्राह्मणों से मग्ड़लवाचन और जात कर्म संस्कार करवाये !
!!१३!! महाराज युधिष्ठिर दान के योग्य समय को जानते थे उन्होंने प्रजातीर्थ नामक काल में अर्थात नाल काटने के पहले ही ब्राह्मणों को स्वर्ण गौएं पृथ्वी गांव उत्तम जाति के हाथी घोड़े और उत्तम अन्न का दान किया !
!!१४!! ब्राह्मणों ने संतुष्ट होकर अत्यंत विनयी युधिष्ठिर से कहा पुरुवंश शिरोमणे कालकी दूर्निवार गति से यह पवित्र पूरुवंश मिटना ही चाहता था परंतु तुम लोगों पर कृपा करने के लिए भगवान विष्णु ने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी !
!!१५-१६!! इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा निस्सन्देह यह बालक संसार में बड़ा यशस्वी भगवान का परम भक्त और महापुरुष होगा !
!!१७!! युधिष्ठिर ने कहा_____महात्माओं यह बालक क्या अपने उज्जवल यश से हमारे वंश के पवित्र कीर्ति महात्मा राजर्षियों का अनुसरण को करेगा !
!!१८!! ब्राह्मणों ने कहा____धर्मराज यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजा का पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान श्री राम के समान ब्राह्मण भक्त और सत्य प्रतिज्ञ होगा !
!!१९!! यह उशीनर नरेश शिबिके समान दाता और शरणागत वत्सल होगा तथा याज्ञिकों में दुष्यन्त के पुत्र भरत के समान अपने वंश का यश फैलायेगा !
!!२०!! धनुर्धरों में यह सहस्त्र बाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थ के समान अग्रगण्य होगा यह अग्रि के समान दुर्धर्ष और समुद्र के समान दुस्तर होगा !
!!२१!! यह सिंह के समान पराक्रमी हिमाचल की तरह आश्रय लेने योग्य पृथ्वी के सदृश तितिक्षु और माता पिता के समान सहनशील होगा !
!!२२!! इसमें पितामह ब्रह्मा के समान समता रहेगी भगवान शंकर की तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने में यह लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के समान होगा !
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