देवर्षि -नारद- की -भक्ति- से-भेंट _ भाग-२०

 !!१८!! सूत जी कहते हैं_____ जहां-तहां ब्राह्मणों के दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे वे सगुण भगवान के तो अनुरूप ही थे क्योंकि उनमें सब कुछ है परंतु निर्गुण के अनुरूप नहीं थे क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है !

देवर्षि -नारद- की -भक्ति- से-भेंट




!!१९!! हस्तिनापुर की कुलीन रमणियां जिनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण में रम गया था आपस में ऐसी बातें कर रही थी जो सबके कान और मन को आकृष्ट कर रही थी!


!!२०!! वे  आपस में कह रही थी सखियों ये वे ही सनातन परम पुरुष हैं जो प्रलय के समय भी अपने अद्वितीय निर्विशेष स्वरूप में स्थित रहते हैं उस समय सृष्टि के मूल ये तीनों गुण भी नहीं रहते जगदात्मा ईश्वर में जीव भी लीन हो जाते हैं और महत्तत्त्वादि समस्त शक्तियां अपने कारण अव्यक्त में सो जाती हैं !


!!२१!! उन्होंने ही फिर अपने नाम रूप रहित स्वरूप में नामरूप के निर्माण की इच्छा की तथा अपनी काल शक्ति से प्रेरित प्रकृति का जो कि उनके अंश भूत जीवों को मोहित कर लेती है और सृष्टि की रचना में प्रवृत्त रहती है अनुसरण किया और व्यवहार के लिए वेदादि  शास्त्रों की रचना की !


!!२२!! इस जगत में जिसके स्वरूप का साक्षात्कार जितेंद्रिय योगी अपने प्राणों को वश में करके भक्ति से प्रफुल्लित निर्मल ह्रदय में किया करते हैं ये श्री कृष्ण वही साक्षात परब्रम्ह है वास्तव में इन्हीं की भक्ति से अतः करण की पूर्ण शुद्धि हो सकती है योगादि के द्वारा नहीं !




!!२३!! सखी वास्तव में ये वही है जिनकी सुन्दर लीलाओं का गायन वेदों में और दूसरे गोपनीय शास्त्रों में व्यासादि रहस्यवादी ऋषियों ने किया है जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीला से जगत की सृष्टि पालन तथा संहार करते हैं परंतु उनमें आसक्त  नहीं होते !


!!२४!! जब तामसी बुद्धि वाले राजा अधर्म से अपना पेट पालने लगते हैं तब ये ही सत्त्वगुण को स्वीकार कर ऐश्वर्य सत्य ऋत दया और यश प्रकट करते और संसार के कल्याण के लिए युग युग में अनेकों अवतार धारण करते हैं !


!!२५!! अहो यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम श्री कृष्ण ने जन्म ग्रहण करके इस वंश को सम्मानित किया है वह पवित्र मधुवन (व्रजमण्डल) भी अत्यंत धन्य है जिसे  इन्होंने अपने शौशव एवं किशोरावस्था में घूम फिर कर सुशोभित किया है !


!!२६!! बड़े हर्ष की बात है कि द्वारका ने स्वर्ग के यश का तिरस्कार करके पृथ्वी के पवित्र यश को बढ़ाया है क्यों न हो वहां की प्रजा अपने स्वामी भगवान श्री कृष्ण को जो बड़े प्रेम से मन्द मन्द ने मुसकराते हुए उन्हें कृपादृष्टि से देखते हैं निरंतर निहारती  रहती है !


!!२७!! सखी जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है उन स्त्रियों  ने अवश्य ही व्रत स्नान हवन आदि के द्वारा इन परमात्मा की आराधना की होगी क्योंकि वे  बार-बार इनकी उस अधर सुधा का पान करती है जिसके स्मरण मात्र से ही व्रजबालाएं  आनन्द से मूर्छित हो जाया करती थीं !


!!२८!! ये स्वयंवर में शिशुपाल आदि मतवाले राजाओं का मान मर्दन करके जिनको अपने बाहुबल से हर लाये थे तथा जिनके पुत्र प्रद्युम्न साम्ब आम्ब आदि हैं वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियां और भौमासुर को मारकर लायी हुई जो इनकी हजारों अन्य पन्तियां है वे वास्तव में धन्य है क्योंकि इन सभी ने स्वतंत्रता और पवित्रता से रहित श्री स्त्रीजीवन को पवित्र और उज्जवल बना दिया है इनकी महिमा का वर्णन कोई क्या करें इनके स्वामी साक्षात कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण है जो नाना प्रकार की प्रिय चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओं की भेंट से इनके हृदय में प्रेम एवं आन्द की अभिवृद्धि करते हुए कभी एक क्षण के लिए भी इन्हें छोड़कर दूसरी जगह नहीं जाते !


!!२९-३०!! हस्तिनापुर की स्त्रियां इस प्रकार बातचीत कर ही रही थी कि भगवान श्रीकृष्ण मन्द मुसकान और प्रेम पूर्ण चितवन से उनका अभिनंदन करते हुए वहां से विदा हो गये !


!!३१!! अजातशत्रु युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा के लिए हाथी घोड़े रथ और पैदल सेना उनके  साथ कर दी उन्हें  स्नेहवश यह शक्डा़ हो आयी थी कि कहीं रास्ते में शत्रु इन पर आक्रमण न कर दें !


!!३२!! सुदृढ़ प्रेमके कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान के साथ बहुत दूर तक चले गये वे लोग उस समय भावी विरह से व्याकुल हो रहे थे भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि उद्धव  आदि प्रेमी मित्रों के साथ द्वारका की यात्रा की !


!!३३!!शौनक जी वे कुरुजाग्ड़ल पाच्ञाल शूरसेन यमुना के तटवर्ती प्रदेश ब्राह्मावर्त कुरुक्षेत्र मत्स्य सारस्वत और मरुधन्व देश को पार करके सौवीर और आभीर देश के पश्चिम आनर्त्त देश में आये उस समय अधिक चलने के कारण भगवान के रथ के घोड़े कुछ थक से गए थे !


!!३४-३५!! मार्ग में स्थान स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान का सम्मान करते सायक्डा़ल होने पर वे रथ पर से भूमि पर उतर आते और जला शयपर जाकर सन्ध्या वन्दन करते यह उनकी नित्यचर्या थी !


!!३६!! सूत जी कहते हैं_____श्री कृष्ण ने अपने समृद्ध आनर्त्त देश में पहुंचकर वहां के लोगों की विरह वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पाच्ञजन्य नामक शख्ड़ बजाया !


!!१!! भगवान के होठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेत वर्ण का शंख बजते समय उनके कर कमलों में ऐसा शोभायमान हुआ जैसे लाल रंग के कमलों पर  बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो !


!!२!! भगवान के शंख की वह ध्वनि संसार के  भयको भयभीत करने वाली है उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्री कृष्ण के दर्शन की लालसा से नगर के बाहर निकल आयी !


!!३!! भगवान श्री कृष्ण आत्माराम हैं वे  अपने आत्म लाभ से ही सदा सर्वदा पूर्णकाम है फिर भी जैसे लोग बड़े आदर से भगवान सूर्यको भी दीपदान करते हैं वैसे ही अनेक प्रकार की भेंटों से प्रजा ने श्री कृष्ण का स्वागत किया !


!!४!! सबके मुख कमल प्रेम से खिल उठे वे हर्षगन्दद वाणी से सबके सुह्रद और संरक्षक भगवान श्री कृष्ण ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे जैसे बालक अपने पिता से अपनी तोतली बोली में बातें करते हैं !


!!५!! स्वामिन  हम आपके उन चरण कमलों को सदा सर्वदा प्रणाम करते हैं जिनकी वंदना ब्रह्मा और इंद्र तक करते हैं जो इस संसार में परम कल्याण चाहने वालों के लिए सर्वोत्तम आश्रय है जिनकी शरण ले लेनेपर परम समर्थ काल भी एक बाल तक बांका नहीं कर सकता !


!!३!! विश्वभावन आप ही हमारे माता सुह्रद स्वामी और पिता है आप ही हमारे सन्दुरु और परम आराध्य देव हैं आपके चरणों की सेवा से हम कृतार्थ हो रहे हैं आप ही हमारा कल्याण करें !


!!७!! अहा हम आपको पाकर  सनाथ हो गये क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्य सार  अनुपम रुप का हम दर्शन करते रहते हैं कितना सुंदर मुख है प्रेमपूर्ण मुस्कान से स्न्त्रग्ध चितवन यह दर्शन तो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है !


!!८!! कमलनयन श्री कृष्ण जब आप  अपने बन्धु बन्धुवों से मिलने के लिए हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रजमण्डल) चले जाते हैं तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षों के समान लम्बा हो जाता है आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है जैसे सूर्य के बिना आंखों की !


!!९!! भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण प्रजा के मुख से ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टि से उनपर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारका में प्रविष्ट हुए!


!!१०!! जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं वैसे ही भगवान की वह द्वारकापुरी भी मधु भोज दशार्ह अर्ह कुकुर अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों से जिनके पराक्रम की तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती सुरक्षित थी !


!!११!! वह पूरी समस्त ऋतुओं के संपूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओं के कुञ्ञों से युक्त थी स्थान स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान पुष्पवाटिकाएं एवं क्रीडावन थे बीच बीच में कमल युक्त सरोवर नगरकी शोभा बढ़ा रहे थे !


!!१२!! नगर के फाटकों महल के दरवाजों और सड़कों  पर भगवान के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थी चारों ओर चित्र विचित्र ध्वजा पताकाएं फहरा रही थी जिनसे उन स्थानों पर घाम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था !


!!१३!! उसके राजमार्ग अन्यान्य सड़कें बाजार और चौक झाड़ बुहारकर सुगंधित जल से सींच दिये गये थे और भगवान के स्वागत के लिए बरसाये  हुए फल फूल अक्षत अक्ड़र चारों ओर बिखरे हुए थे !


!!२४!! घरों के प्रत्येक द्वार पर दही अक्षत फल ईख जल से भरे हुए कलश उपहार की वस्तुएं और धूप दीप आदि सजा दिए गए थे !


!!१५!! उदार शिरोमणि वसुदेव अक्रूल उग्रसेन अद् भुत पराक्रमी बलराम प्रद्युम्न चारुदेष्ण और जाम्बवतीनन्दन साम्बने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान श्री कृष्ण आ रहे हैं तब उनके मन में इतना आनन्द  उमडा़ की उन लोगों ने अपने सभी आवश्यक कार्य सोना बैठना और भोजन आदि छोड़ दिए प्रेमके आवेगसे  उनका ह्रदय उछलने  लगा वे 

 मग्ड़लशकुनके लिए एक गजराज को आगे करके स्वस्त्ययन पाठ करते हुए और माग्ड़लिक सामग्रियों से सुसज्जित ब्राह्मणों को साथ लेकर चले शंख और तुरही  आदि बाजे बजने लगे और वेदध्वनि होने लगी वे सब हर्षित होकर स्थोंपर सवार हुए और बड़ी आदर बुद्धि से भगवान की अगवानी करने चले !


!!२६-१८!! साथ ही भगवान श्री कृष्ण के दर्शन के लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएं  जिनके मुख कपोलों पर चमचमाते हुए कुण्डलों की कान्ति पड़ने से बड़े सुन्दर दिखते थे पालकियों पर चढ़कर भगवान की अगवानी के लिये चलीं !











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