!!३८!! सूत जी कहते हैं_____ गदाधर आपके विलक्षण चरण चिन्हों से चिन्हित यह कुरुजाग्ड़ल देश की भूमि आज जैसी शोभा यमान हो रही है वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी !
!!३९!! आपकी दृष्टि के प्रभाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता वृक्षों से समृद्ध हो रहा है ये वन पर्वत नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टि से ही वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं !
!!४०!! आप विश्व के स्वामी हैं विश्व के आत्मा हैं और विश्वरूप हैं यदुवंशियों और पांण्डवों में मेरी बड़ी ममता हो गयी है आप कृपा करके स्वजनों के साथ जोडे़ हुए इस स्नेह की दृढ़ फांसी को काट दीजिए !
!!४१!! श्री कृष्ण जैसे गग्डा़ की अखण्ड धारा समुद्र में गिरती रहती है वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आप से ही निरन्तर प्रेम करती रहे !
!!४२!! श्री कृष्ण अर्जुन के प्यारे सखा यदुवंशशि रोमणे आप पृथ्वी के भार रूप राजवेश धारी दैत्यों को जलाने के लिए अग्रि स्वरूप है आपकी शक्ति अनन्त है गोविंद आपका यह अवतार गौ ब्राह्मण और देवताओं का दुःख मिटाने के लिए ही है योगेश्वर चराच के गुरु भगवन् मैं आपको नमस्कार करती हूं !
!!४३!! सूत जी कहते हैं____इस प्रकार कुन्ती ने बड़े मधुर शब्दों में भगवान की अधिकांश लीलाओं का वर्णन किया यह सब सुनकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी माया से उसे मोहित करते हुए से मन्द मन्द मुसकराने लगे !
!!४४!! उन्होंने कुन्ती से कह दिया अच्छा ठीक है और रथ के स्थान से वे हस्तिनापुर लौट आए वहां कुन्ती और सुभद्रा आदि देवियों से विदा लेकर जब वे जाने लगे तब राजा युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से उन्हें रोक लिया !
!!४५!! राजा युधिष्ठिर को अपने भाई बन्धुओं के मारे जाने का बड़ा शोक हो रहा था भगवान की लीला का मर्म जानने वाले व्यास आदि महर्षियो ने और स्वयं अद्भुत चरित्र करने वाले भगवान श्री कृष्ण ने भी अनेकों इतिहास कहकर उन्हें समझाने की बहुत चेष्टा की परंतु उन्हें सांत्वना न मिली उनका शोक न मिटा !
!!४६!! शौनकदि ऋषियो धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को अपने स्वजनों के वध से बड़ी चिन्ता हुई वे अविवेक युक्त चित्तसे से स्नेह और मोह के वश में होकर कहने लगे भला मुझ दुरात्मा के हृदय में बुद्ध मूल हुए इस अज्ञान को तो देखो मैंने सियार कुत्तों के आहार इस अनात्मा शरीर के लिए अनेक अक्षौहिणी सेना का नाश कर डाला !
!!४७-४८!! मैंने बालक ब्राह्मण संबंधी मित्र चाचा ताऊ भाई बंधु और गुरुजनों से द्रोह किया है करोड़ों बरसों से भी नरक से मेरा छुटकारा नहीं हो सकता !
!!४९!! यद्यपि शास्त्र का वचन है कि राजा यदि प्रजा का पालन करने के लिए धर्म युद्ध में शत्रुओं को मारे तो उसे पाप नहीं लगता फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता !
!!५०!! स्त्रियों के पति और भाई बंधुओं को मारने से उनका मेरे द्वारा यहां जो अपराध हुआ है उसका मैं गृहस्थोचित यज्ञ यागादि कों के द्वारा मार्जन करने में समर्थ नहीं हूं !
!!५१!! जैसे कि कीचड़ से गंदला जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता मदिरा से मदिरा की अपवित्रता नहीं मिटायी जा सकती वैसे ही बहुत से हिंसाबहुल यज्ञों के द्वारा एक भी प्राणी की हत्या का प्रायश्चित नहीं किया जा सकता !
!!५२!! सूतजी कहते हैं____इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोह से भयभीत हो गए फिर सब धर्मों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने कुरुक्षेत्र की यात्रा की जहां भीष्मपितामह शरशय्या पर पड़े हुए थे !
!!१!! शौनकादि ऋषियो उस समय उन सब भाइयों ने स्वर्णजटित रथों पर जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जूते हुए थे सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिर का अनुगमन किया उनके साथ व्यास धौम्य आदि ब्राह्मण भी थे !
!!२!! शौनक जी अर्जुन के साथ भगवान श्रीकृष्ण भी रथ पर चढ़कर चले उन सब भाइयों के साथ महाराज युधिष्ठिर की ऐसी शोभा हुई मानों यक्षों से घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हो !
!!३!! अपने अनुचरों और भगवान श्री कृष्ण के साथ वहां जाकर पाण्डवों ने देखा कि भीष्म पितामह स्वर्ग से गिरे हुए देवता के समान पृथ्वी पर पड़े हुए हैं उन लोगों ने उन्हें प्रणाम किया !
!!४!! शौनक जी उसी समय भरतवंशियों के गौरव रूप भीष्म पितामह को देखने के लिए सभी ब्रह्मर्षि देवर्षि और राजर्षि वहां आये !
!!५!! पर्वत नारद धौम्य भगवान व्यास बृहदश्व भरद्वाज शिष्यों के साथ परशुराम जी वसिष्ठ इंद्रप्रमद त्रित गृत्समद असित कक्षीवान गौतम अत्रि विश्वामित्र सुदर्शन तथा और भी सुकदेव आदि शुद्ध ह्रदय महात्मा गण एवं शिष्यों के सहित कश्यप अग्डि़रा पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहां पधारे !
!!६-८!! भीष्म पितामह धर्म को और देश काल के विभाग को कहां किस समय क्या करना चाहिए इस बात को जानते थे उन्होंने उन बड़भागी ऋषियों को सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया !
!!९!! वे भगवान श्री कृष्ण का प्रभाव भी जानते थे अतः उन्होंने अपनी लीला से मनुष्य का वेष धारण करके वहां बैठे हुए तथा जगदीश्वर के रूप में हृदय में विराजमान भगवान श्री कृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की !
!!१०!! पाण्डव बड़े विनय और प्रेम के साथ भीष्म पितामह के पास बैठ गए उन्हें देखकर भीष्म पितामह की आंखें प्रेम के आंसुओं से भर गई उन्होंने उनसे कहा !
!!११!! धर्मपुत्रो हाय हाय यह बड़े कष्ट और अन्याय की बात है कि तुम लोगों को ब्राह्माण धर्म और भगवान के आश्रित रहने पर भी इतने कष्ट के साथ जीना पड़ा जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे !
!!१२!! अतिरथी पाण्डु की मृत्यु के समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी उन दिनों तुम लोगों के लिए किन्ती रानी को और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत से कष्ट झेलने पड़े !
!!१३!! जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते हैं वैसे ही लोक पालों के सहित सारा संसार काल भगवान के अधीन है मैं समझता हूं कि तुम लोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएं घटित हुई है वे सब उन्हीं की लीला है !
!!१४!! नहीं तो जहां साक्षात धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हो गदाधारी भीमसेन और धनु र्धारी अर्जुन रक्षाका काम कर रहे हो गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्री कृष्ण सुहद हो भला वहां भी विपत्ति की सम्भावना है !
!!१५!! ये कॉल रूप श्री कृष्ण कब क्या करना चाहते हैं इस बात को कभी कोई नहीं जानता बड़े बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं !
!!१६!! युधिष्ठिर संसार की ये सब घटनाएं ईश्वरे च्छाके अधीन हैं उसी का अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजा का पालन करो क्योंकि अब तुम्हीं इस के स्वामी और इसे पालन करने में समर्थ हो !
!!१७!! ये श्री कृष्ण साक्षात भगवान है ये सब के आदि कारण और परम पुरुष नारायण है अपनी माया से लोगों को मोहित करते हुए ये यदुवंशियों में छिपकर लीला कर रहे हैं !
!!१८!! इनका प्रभाव अत्यंत गूढ़ रहस्यमय है युधिष्ठिर उसे भगवान शक्ड़र देवर्षि नारद और स्वयं भगवान कपिल ही जानते हैं !
!!१९!! जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेम वंश अपना मंत्री दूत और सारथी तक बनाने में संकोच नहीं किया है वे स्वयं परमात्मा है !
!!२०!! इन सर्वात्मा समदर्शी अद्वितीय अहक्ड़र रहित और निष्पाप परमात्मा में उन उंचे नीचे कार्यों के कारण कभी किसी प्रकार की विषमता नहीं होती !
!!२१!! युधिष्ठिर इस प्रकार सर्वत्र सम होने पर भी देखा तो सही वे अपने अनन्य प्रेमी भक्तों पर कितनी कृपा करते हैं यही कारण है कि ऐसे समय में जबकि मैं अपने प्राणों का त्याग करने जा रहा हूं इन भगवान श्रीकृष्ण मुझे साक्षात दर्शन दिया है !
!!२२!! भगवत्प रायण योगी पुरुष भक्ति भाव से इनमें अपना मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं और कामनाओं से तथा कर्म के बन्धन से छूट जाते हैं !
!!२३!! ये ही देव देव भगवान अपने प्र प्रसन्न हास्य और रक्तकमल के समान अरुण नेत्रों से उल्लसित मुख वाले से चतुर्भुज रूप से जिसका और लोगों को केवल ध्यान में दर्शन होता है तब तक यही स्थित रह कर प्रतीक्षा करें जब तक मैं इस शरीर का त्याग न कर दूं !
!!२४!! सूतजी कहते हैं____युधिष्ठिर ने उनकी यह बात सुनकर शर शय्या पर सोये हुए भीष्म पितामह से बहुत से ऋषियों के सामने ही नाना प्रकार के धर्मों के सम्बन्ध में अनेकों रहस्य पूछे !
!!२५!! तब तत्त्ववेत्ता भीष्म पितामह ने वर्ण और आश्रम के अनुसार पुरुष के स्वाभाविक धर्म और वैराग्य तथा राग के कारण विभिन्न रूप से बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्ति रूप द्विविध धर्म दानधर्म राजधर्म मोक्षधर्म स्त्रीधर्म और भगवद्धर्म इन सबका अलग-अलग संक्षेप और विस्तार से वर्णन किया शौनक जी इनके साथ ही धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों पुरूषार्थों का तथा इनकी प्राप्ति के साधनों का अनेकों
उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागश: वर्णन किया !
!!२६-२८!! भीष्म पितामह इन प्रकार धर्म का प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायण का समय आ पहुंचा जिसे मृत्यु को अपने अधीन रखने वाले भगवत्परायण योगी लोग चाहा करते हैं !
!!२९!! उस समय हजारों रथियों के नेता भीष्म पितामह ने वाणी का संयम करके मनको सब ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदि पुरुष भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया भगवान श्री कृष्ण के सुंदर चतुर्भुज विग्रह पर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था भीष्म जी की आंखों उसी पर एक टक लग गयी !
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