देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट-भाग-१९

 !!३०!! सूत जी कहते हैं_____उनको शस्त्रों की चोट से जो पीड़ा हो रही थी वह तो भगवान के दर्शन मात्र से ही तुरंत दूर हो गयी तथा भगवान की विशुद्ध धारणा से उनके जो कुछ अशुभ शेष थे  वे सभी नष्ट हो गए अब शरीर छोड़ने के समय उन्होंने अपनी समस्त इंद्रियों के वृत्ति  विलास को रोक दिया और बड़े प्रेम से भगवान की स्तुति की !

श्रीमद्भागवत


!!३१!! भीष्म जी ने कहा____अब मृत्यु के समय मैं अपनी यह बुद्धि जो अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करने से अत्यंत शुद्ध एवं कामना रहित हो गई है यदुवंश शिरोमणि अनन्त भगवान श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूं जो सदा सर्वदा अपने आनन्द मय स्वरूप में स्थित रहते हुए ही कभी विहार करने की लीला करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार कर लेते हैं जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है !


!!३२!! जिनका शरीर त्रिभुवन सुन्दर एवं श्याम तमाल के समान सावला है जिस पर सूर्य रश्मियों के समान श्रेष्ठ पिताम्बर लहराता रहता है और कमल सदृश मुख पर घूंघराली अल कें  लटकती रहती हैं उन अर्जुन सखा श्री कृष्णा मेरी निष्कपट प्रीति हो !


!!३३!! मुझे युद्ध के समय की उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है उनके मुख पर लहराते हुए घुंघराले बाल घोडों की टाप की धूल से मट मैले हो गए थे और पसीने की छोटी-छोटी बूंदे शोभायमान हो रही थी  मैं अपने तीखे बाणों से उनकी त्वचा को बींध रहा था उन सुंदर कवच मण्डित भगवान श्रीकृष्ण के प्रति मेरा शरीर अन्त करण और आत्मा समर्पित हो जायं !


!!३४!! अपने मित्र अर्जुन की बात सुनकर जो तुरंत ही पाण्डव सेना और कौरव सेना के बीच में अपना रथ ले आए और वहां स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टि से ही शत्रु पक्ष के सैनिकों की आयु छीन ली उन पार्थसखा  भगवान श्री कृष्ण में मेरी परम प्रीति हो !


!!३५!! अर्जुन ने जब दूरसे कौरवों की सेना के मुखिया हम लोगों को देखा  तब पाप समझ कर वह अपने स्वजनों के वध से विमुख हो गया उस समय जिन्होंने गीता के रूप में आत्मविद्या का उपदेश करके उसके सामयिन अज्ञान का नाश कर दिया उन परम पुरुष भगवान श्री कृष्ण के चरणों में मेरी प्रीति बनी रहे !


!!३६!! मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण कराकर छोडूंगा उसे सत्य एवं ऊंची करने के लिए उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा तोड़ दी उस समय वे रथ से नीचे कूद पड़े और सिंह  जैसे हाथी को मारने के लिए उस पर टूट पड़ाता है वैसे ही रथ का पहिया लेकर  मुझ पर झपट पड़े उस समय वे इतने वेगसे दौड़े कि उनके कंधे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी कांपने  लगी !


!!३७!! मुझे आततायी ने तीखे बाण मार मारकर उनके शरीर का कवच तोड़ डाला था जिससे सारा शरीर वह लहूलुहान हो रहा था अर्जुन के रोकने पर भी वे बलपूर्वक मुझे मारने के लिए मेरी ओर दौड़े आ रहे थे वे भगवान श्री कृष्ण जो ऐसा करते  हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलता से परिपूर्ण थे मेरी एकमात्र गति हों आश्रय हों !


!!३८!! अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान जिन श्री कृष्ण के बायें हाथ में घोड़ों की रास थी और दाहिने हाथ में चाबुक इन दोनों की शोभा से उस समय जिनकी अपूर्ण छबि बन गयी थी तथा महाभारत युद्ध में मरने वाले वीर जिनकी इस छविका दर्शन करते रहने के कारण सारूप्य मोक्ष को प्राप्त हो गए उन्हीं पार्थ सारथि भगवान श्रीकृष्ण में मुझे मरणासन्न की परम प्रीति हो !


!!३९!! जिनकी लटकीलि सुन्दर चाल हाव  भावयुक्त चेष्टाएं मधुर मुस्कान और प्रेम भरी चितवन से अत्यंत सम्मानित गोपियां रास लीला में उनके अन्तर्धान हो जाने पर प्रेमोन्माद से  मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थी उन्हीं भगवान श्री कृष्ण में मेरा परम प्रेम हो !


!!४०!! जिस समय युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ हो रहा था मुनियों और बड़े-बड़े राजाओं से भरी हुई सभा में सबसे पहले सब की ओर से इन्हीं सब के दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण की मेरी आंखों के सामने पूजा हुई थी वे ही सब के आत्मा प्रभु आज इस मृत्यु के समय मेरे सामने खड़े हैं !


!!४१!! जैसे एक ही सूर्य अनेक आंखों से अनेक रूपों में दिखते हैं वैसे ही अजन्मा भगवान श्री कृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीर धारियों के हृदय में अनेक रूप से जान पड़ते हैं वास्तव में तो वे एक और सबके हृदय में विराजमान हैं ही उन्हीं इन भगवान श्रीकृष्ण को मैं भेद भ्रम से रहित होकर प्राप्त हो गया हूं !


!!४२!! सूतजी कहते हैं_____इस प्रकार भीष्म पितामह ने मन वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्म स्वरूप भगवान श्री कृष्ण में अपने आपको लिन कर दिया उनके प्राण वहीं विलीन हो गए और वे शांत हो गए !


!!४३!! उन्हें अनन्त ब्रह्म में लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप हो गए जैसे दिन के बीच जाने पर पक्षियों का कलरव शांत हो जाता है !


!!४४!! उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे साधु स्वभाव के राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी !


!!४५!! शौनक जी युधिष्ठिर ने उनके मृत शरीर की अंत्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समय के लिए वे शोकमग्र हो गये !


!!४६!! उस समय मुनियोंने  बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण की उनके रहस्यमय नाम ले लेकर स्तुति की इसके पश्चात अपने हृदयों को श्रीकृष्ण मय बनाकर वे अपने अपने आश्रमों को लौट गये


!!४७!! तदनन्तर  भगवान श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आए और उन्होंने वहां अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी को ढांढस बंधाया !


!!४८!! फिर से धृतराष्ट्र की आज्ञा और भगवान श्री कृष्ण की अनुमति से समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंश

 परम्परा गत  साम्राज्य का धर्मपुर्वक शासन करने लगे!


!!४९!! शौनक जी ने पूछा_____धार्मिक शिरोमणि महाराज युधिष्ठिर ने अपनी पैतृक सम्पत्ति को हड़प जाने के इच्छुक आततायियों का नाश करके अपने भाइयों के साथ किस प्रकार से राज्य शासन किया और कौन-कौन से काम किये क्योंकि भागों में तो उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं !


!!१!! सूतजी कहते हैं____सम्पूर्ण सृष्टि को उज्जीवित करने वाले भगवान श्री हरि परस्पर की कलहाग्रि से दग्ध कुरुवंश को पुनः अंकुरितकर और युधिष्ठिर को उनके राज्य सिंहासन पर बैठा कर बहुत प्रसन्न हूए !


!!२!! भीष्म पितामह और भगवान श्री कृष्ण के उपदेशों के श्रवण से उनके अंतः करण में विज्ञान का उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गई भगवान के आश्रय में रहकर वे समुद्र पर्यन्त सारी पृथ्वी का इन्द्र के समान शासन करने लगे भीमसेन आदि उनके भाई पूर्ण रूप से उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे !


!!३!! युधिष्ठिर के राज्य में आवश्यकता नुसार यथेष्ट वर्षा होती थी पृथ्वी में समस्त अभीष्ट वस्तुएं पैदा होती थी बड़े-बड़े थनों वाली बहुत सी गौएं प्रसन्न रह कर  गोशालाओं को दूध से सींचती रहती थीं !


!!४!! नदियां समुद्र पर्वत वनस्पति लगाए और ओषधियां प्रत्येक ऋतु में यथेष्टरूप से अपनी अपनी वस्तुएं राजा को देती थी !


!!५!! अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर के राज्य में किसी प्राणी को कभी भी आधि व्याधि अथवा दैविक भौतिक और आत्मिक के केल्श नहीं होते थे !


!!६!! अपने बन्धुओं का शोक मिटाने के लिए और अपनी बहिन सुभद्रा की प्रसन्नता के लिए भगवान श्री कृष्ण कई महीनों तक हस्तिनापुर में ही रहे !


!!७!! फिर जब उन्होंने राजा युधिष्ठिर से द्वारका जाने की अनुमति मांगी तब राजा ने उन्हें अपने हृदय से लगाकर स्वीकृति दे दी भगवान उनको प्रणाम करके रथ पर सवार हुए कुछ लोगों ( समान उम्रवालों ) ने उनका आलिग्ड़न किया और कुछ ( छोटी उम्र वालों ) ने प्रणाम !


!!८!! उस समय सभद्रा द्रोपदी कुंती उत्तरा गान्धारी  धृतराष्ट्र युयुत्सु कृपाचार्य नकुल सहदेव भीमसेन धौम्य  और सत्यवती आदि सब मूर्च्छित से हो गये वे शार्ग्डपाणि श्री कृष्ण का विरह नहीं सह सके !


!!९-१०!! भगवद्भक्त  सत्पुरुषों के सग्ड़ से जिसका दुःसग्ड़ छूट गया है वह विचारशील पुरुष भगवान के मधुर मनोहर सुयश को एक बार भी सुन लेनेपर  फिर उसे छोड़ने की कल्पना भी नहीं करता  उन्हीं भगवान के दर्शन तथा स्पर्श से उनके साथ आलाप करने से तथा साथ ही साथ सोने उठने बैठने और भोजन करने से जिनका सम्पूर्ण हृदय उन्हें समर्पित हो चुका था वे पाण्डव भला उनका विरह कैसे सह सकते  थे !


!!११-१२!! उनका चित्त द्रवित हो रहा था वे सब निर्निमेष नेत्रों से भगवान को देखते हुए स्नेह बन्धन से बंधकर जहां तहां दौड़ रहे थे !


!!१३!! भगवान श्री कृष्ण के घर से चलते समय उनके बंधुओं की स्त्रियों के नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते हुए आंसूओं से भर आते: परंतु इस भय से कि कहीं यात्रा के समय अशकुन न हो जाए उन्होंने बड़ी कठिनाई से उन्हें रोक लिया !


!!१४!! भगवान के प्रस्थान के समय मृदग्ड़ शख्ड़ भेरी वीणा ढोल नरसिंगे के धुन्धुरी नगारे घंटे और दुन्दुभियां आदि बाजे बजने लगे !


!!१५!! भगवान के दर्शन की लालसा से कुरुवंश की स्त्रियां अटरियों पर चढ़ गयीं और प्रेम लज्जा  एवं मुस्कान से युक्त चितवन से भगवान को देखती हुई उन पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं !


!!१६!! उस समय भगवान के प्रिय सखा घुंघराले बालों  वाले अर्जुन ने अपने प्रियतम श्री कृष्ण का वह श्वेत छत्र जिसमें मोतियों की झालर लटक रही थी और जिसका डंडा रत्नों का बना हुआ था अपने हाथ में ले लिया ! 


!!१७!! उद्धव और सात्यकि बड़े विचित्र चंवर डुलाने लगे मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण पर चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी बड़ी ही मधुर झांकी थी !

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