हे परन्तप इस तरह परम्परा से प्राप्त इस कर्म योग को राजर्षियों ने राना परंतु बहुत समय बीत जाने के कारण वह योग इस मनुष्य लोक में लुप्तप्राय हो गया !
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा मैं क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है !
अर्जुन बोले______आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अतः आपने ही सृष्टि के आरम्भ में (सूर्य से) यह योग कहा था यह बात मैं कैसे समझूं !
श्री भगवान भोले_____हे परन्तप अर्जुन मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं उन सब को मैं जानता हूं पर तू नहीं जानता !
मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा संपूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूं !
हे भरतवंशी अर्जुन जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने आप को (साकार रूप से) प्रकट करता हूं !
साधुओं (भक्तों) की रक्षा करने के लिये पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की भली-भांति स्थापना करने के लिये मैं युग युग में प्रकट हुआ करता हूं !
हे अर्जुन मेरे जन्म और कर्म दिव्य है इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्म को) जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है अर्थात दृढ़तापूर्वक मान लेता है वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है !
राग भय और क्रोध से सर्वथा रहित मुझमें तल्लीन मेरे ही आश्रित तथा ज्ञान रूप तप से पवित्र हुए बहुत से भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं !
हे पृथानन्दन जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूं क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं !
कर्मों की सिद्धि (फल) चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है !
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभाग पूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है उस (सृष्टि रचना) आदि) का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता जान कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है वह भी कर्मों से नहीं बंधता !
पूर्व काल के मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर कर्म किये हैं इसीलिये तू भी पूर्वजों के द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों के ही (उन्हीं की तरह) कर !
कर्म क्या है और अकर्म क्या है इस प्रकार इस विषय में विद्वान भी मोहित हो जाते हैं अतः वह कर्म तत्त्व मैं तुझे भली-भांति कहूंगा जिसको जान कर तू अशुभ (संसार-- बन्धन) से मुक्त हो जायगा !
कर्म का तत्व भी जानना चाहिए और अकर्म का तत्व भी जानना चाहिए तथा विकर्म का तत्व भी जानना चाहिए क्योंकि कर्मों की गति गहन है अर्थात समझने में बड़ी कठिन है !
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है वह मनुष्यों में बुद्धिमान है वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला (कृत कृत्य) है !
जिसके सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ संकल्प और कामना से रहित है तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञान रूपी अग्नि से जल गये हैं उसको ज्ञानि जन भी पण्डित (बुद्धिमान) कहते हैं !
जो कर्म और फल की आसक्ति का त्याग करके (संसार के) आश्रय से रहित और सदा तृप्त है वह कर्मों में अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता !
जिसका शरीर और अन्त: करण अच्छी तरह से वश में किया हुआ है जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है ऐसा इच्छा रहित (कर्मयोगी) केवल शरीर सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता !
(जो कर्म योगी फल की इच्छा के बिना) अपने आप जो कुछ मिल जाय उसमें संतुष्ट रहता है और जो ईष्र्या से रहित द्वन्द्वों से रहित तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बंधता !
जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है जो मुक्त हो गया है जिसकी बुद्धि स्वरूप के ज्ञान में स्थित है ऐसे केवल यज्ञ के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं !
जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात जिससे अर्पण किया जाय वे स्त्रुक आदि पात्र भी ब्रह्म है हव्य पदार्थ (तिल जौ घी आदि) भी ब्रह्म है और ब्रह्म रूप कर्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है (ऐसे यज्ञ को करने वाले) जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म समाधि हो गयी है उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य (फल भी) ब्रह्म ही है
अन्य योगीलोग दैव (भगवद र्पणरूप ) यज्ञ का ही अनुष्ठान करते हैं और दूसरे योगीलोग ब्रह्म रूप अग्नि में (विचार रूप) यज्ञ के द्वारा ही (जीवात्मा रूप) यज्ञ का हवन करते हैं !
अन्य योगीलोग श्रोत्रादि समस्त इंद्रियों का संयम रूप अग्नि यों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि विषयों का इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं !
अन्य योगी लोग सम्पूर्ण इंद्रियों की क्रियाओं को और प्राणों की क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योग (समाधि योग) रूप अग्नि में हवन किया करते हैं!
दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करने वाले प्रयत्नशील साधक द्रव्य मय यज्ञ करने वाले हैं और कितने ही तपो यज्ञ करने वाले हैं और दूसरे कितने ही योग यज्ञ करने वाले हैं तथा कितने ही स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं !
दूसरे कितने ही प्राणायाम के परायण हुए योगी लोग अपान में प्राण का (पूरक करके) प्राण और अपान की गति रोककर (कुम्भक करके) फिर प्राण में अपान का हवन (रेचक) करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणों का प्राणों में हवन किया करते हैं ये सभी (साधक) यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं !
हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं यज्ञ न करने वाले मनुष्य के लिये यह मनुष्य लोग भी सुखदायक नहीं है फिर परलोग कैसे सुखदायक होगा !
इस प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गये हैं उन सब यज्ञों को तू कर्मजन्य जान इस प्रकार जानकर( यज्ञ करने से ) तू कर्म बन्धन से मुक्त हो जायगा !
हे परन्तप अर्जुन द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान (तत्वज्ञान) में समाप्त (लीन) हो जाते हैं !
उस तत्वज्ञान को (तत्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषों के पास जाकर ) समझ उनको साष्टांग दण्डवत प्रणाम करने से उनकी सेवा करने से और सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे तत्वदर्शी (अनुभवी) ज्ञानी (शास्त्रज्ञ) महापुरुष तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश देंगे !
जिस (तत्वज्ञान ) का अनुभव करने के बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा और हे अर्जुन जिस (तत्वज्ञान) से तु सम्पूर्ण प्राणियों को नि: शेष
भाव से पहले अपने में और उसके बाद मुझे सच्चिदानन्द घन परमात्मा में देखेगा !
अगर तू सब पापियों से भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौका के द्वारा नि: सन्देह संपूर्ण पाप समुद्र सेअच्छी तरह तर जायगा !
हे अर्जुन जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को सर्वथा भस्म कर देती है ऐसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को सर्वथा भस्म कर देती है !
इस मनुष्य लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला नि:संदेह दूसरा कोई साधन नहीं है जिसका योग भली-भांति सिद्ध हो गया है (वह कर्मयोगी) उस तत्व ज्ञान को अवश्य ही स्वयं अपने आप में पा लेता है !
जो जितेंद्रिय तथा साधन परायण हैं ऐसा श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शांति को प्राप्त हो जाता है !
विवेक हीन और श्रद्धा रहित संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है ऐसे संशयात्मा मनुष्य के लिये न तो यह लोग (हितकारक) है न परलोक (हितकारक) है और न सुख ही है !
हे धनंजय योग (समता) के द्वारा जिसका संपूर्ण कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद हो गया है और विवेक ज्ञान के द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयों का नाश हो गया है ऐसे स्वरूप परायण मनुष्य को कर्म नहीं बांधते !
इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय का ज्ञान रूप तलवार से छेदन करके योग (समता) में स्थित हो जा और (युद्ध के लिए) खड़ा हो जा !
0 Comments