संजय बोले______वैसी कायरता से व्याप्त हुए उन अर्जुन के प्रति जो कि विषाद कर रहे हैं और आंसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है भगवान मधुसूदन यह( आगे कहे जाने वाले वचन बोले ) तुम्हें यह कायरता कहां से प्राप्त हुई जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते जो स्वर्ग को देने वाली नहीं है और कीर्ति करने वाली भी नहीं है !
हे पृथानन्दन अर्जुन इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो क्योंकि तुम्हारे में यह उचित नहीं है हे परन्तप ह्रदय की इस तुच्छ दुर्बलता का त्याग कर के (युद्ध के लिए) खड़े हो जाओ !
अर्जुन बोले____हे मधुसूदन मैं रणभूमि में भीष्म और द्रोण के साथ बाणों से कैसे युद्ध करूं क्योंकि हे अरिसूदन ये दोनों ही पूजा के योग्य है !
महानुभाव गुरु जनों को न मारकर इस लोकमें मैं भिक्षाका अन्न खाना भी श्रेष्ठ समझता हूं क्योंकि गुरुजनों को मारकर यहा रक्त से सने हुए तथा धनकी कामना की मुख्यता वाले भागों को ही तो भोगूंगा !
हम यह भी नहीं जानते कि हम लोगों के लिये( युद्ध करना और न करना__ इन ) दोनों में से कौन सा अत्यंत श्रेष्ठ है
अथवा हम उन्हें जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्र के सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं !
कायरता रूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित अन्तः करण वाला मैं आप से पूछता हूं कि जो निश्चित कल्याण करने वाली हो वह बात मेरे लिये कहिये मैं आपका शिष्य हूं आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये !
कारण कि पृथ्वी पर धन धान्य समृद्ध और शत्रु रहित राज्य तथा (स्वर्ग में) देवताओं का अधिपत्य मिल जाय तो भी इंद्रियों को सुखाने वाला मेरा जो शोक है वह दूर हो जाय ऐसा मैं नहीं देखता हूं !
संजय बोले____हे शत्रु तापन धृतराष्ट्र ऐसा कह कर निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान गोविन्द से मैं युद्ध नहीं करूंगा ऐसा साफ-साफ कह कर चुप हो गये
हे
भरत वंशोद्भव धृतराष्ट्र दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हंसते हुए--से भगवान हृषीकेश यह (आगे कहे जाने वाले) वचन बोले !
शोक किया है और विद्वत्ता (पण्डिताई)-- की बातें कह रहे हो परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये पण्डित लोग शोक नहीं करते !
किसी काल में मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजा लोग नहीं थे यह बात भी नहीं है और इसके बाद (भविष्य में मैं तू और राजा लोग ) हम सभी नहीं रहेंगे यह बात भी नहीं है !
देहधारी के इस मनुष्य शरीर में जैसे बालक पन जवानी और वृद्धावस्था होती है ऐसे ही दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता !
हे कुन्ती नन्दन इंद्रियों के विषय (जड़ पदार्थ) तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं तथा आने जाने वाले और अनित्य हैं हे भरत वंशोद्भव अर्जुन उनको तुम सहन करो !
कारण की हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन सुख दुःख में सम रहने वाले जिस बुद्धिमान मनुष्य को ये मात्रा (पदार्थ) विचलित (सुखी दुःखी) नहीं करते वह अमर होने में समर्थ हो जाता हैं
अर्थात वह अमर हो जाता है !
असत का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही तत्त्व देखा अर्थात अनुभव किया है !
अविनाशी तो उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता !
अविनाशी जानने में न आने वाले और नित्य रहने वाले इस शरीरी के ये देह अन्तवाले कहे गये हैं इसलिये हे
अर्जुन तुम युद्ध करो !
जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरी को मारने वाला मानता है और जो मनुष्य इस को मरा मानता है वे दोनों ही इसको नहीं जानते क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है !
यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला नहीं है यह जन्म रहित नित्य निरंतर रहने वाला शाश्वत और अनादि है शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता !
हे पृथा नन्दन जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी नित्य जन्म रहित और अव्यय जानता है वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाते !
मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही देही पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है !
शस्त्र इस शरीरी को काट नहीं सकते अग्नि इसको जला नहीं सकती जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती !
यह शरीरी काटा नहीं जा सकता यह जलाया नहीं जा सकता यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखा या भी नहीं जा सकता कारण कि यह नित्य रहने वाला सब में परिपूर्ण अचल स्थिर स्वभाव वाला और अनादि है !
यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता यह चिन्तन का विषय नहीं है और यह निर्विकार कहा जाता है अतः इस देही को ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये
हे महाबाहो अगर तुम इस देही को नित्य पैदा होने वाला अथवा नित्य मरने वाला भी मानो तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये
कारण की पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा अतः( इस जन्म मरण रूप परिवर्तन के प्रवाह का ) निवारण नहीं हो सकता अतः इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये
हे भारत सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद अप्रकट हो जायंगे केवल बीच में ही प्रकट दीखते हैं अतः इसमें शोक करने की बात ही क्या है !
कोई इस शरीरी को आश्चर्य की तरह देखता है (अनुभव करता) है और वैसे ही दूसरा कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता अर्थात् यह दुर्विज्ञेय है !
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन सबके देह में यह देही नित्य ही अवध्य है ! इसलिये सम्पूर्ण प्राणियों के लिये अर्थात किसी भी प्राणी के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये
और अपने क्षात्रधर्म को देख कर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात कर्तव्य कर्म से विचलित नहीं होना चाहिये
क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षेत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है !
अपने आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्ग का दरवाजा भी है हे पृथानन्दन वे क्षत्रिय बड़े सुखी (भाग्यशाली) है जिनको ऐसा युद्ध प्राप्त होता है !
अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करके पाप को प्राप्त होगा !
और सब प्राणी भी तेरी सदा रहने वाली अपकीर्ति का कथन अर्थात निन्दा करेंगे वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायी होती है !
तथा महारथी लोग मुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे जिनकी धारणा में तू बहूमान्य हो चुका है (उनकी दृष्टि में) तू लघुता को प्राप्त हो जायगा !
तेरे शत्रु लोग तेरी सामर्थ्य की निन्दा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे उससे बढ़कर और दुःख की बात क्या होगी !
अगर (युद्ध में) तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्ग की प्राप्ति होगी और अगर (युद्ध में) तू जीत जायगा तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा अतः हे कुन्ती नन्दन तू युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा !
जय पराजय लाभ हानि और सुख दुःख को समान करके फिर युद्ध में लग जा इस प्रकार (युद्ध करने से) तू पाप को प्राप्त नहीं होगा !
हे पार्थ यह समबुद्धि तेरे लिये (पहले) संख्या योग में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन जिस समबुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म बन्धन का त्याग कर देगा !
मनुष्य लोक में इस समबुद्धि रूप धर्म के आरम्भ का नाश नहीं होता तथा (इसके अनुष्ठान का )उल्टा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान (जन्म मरण रूप) महान भय से रक्षा कर लेता है !
हे कुरुनन्दन इस (समबुद्धि की प्राप्ति )के विषय में निश्चय वाली बुद्धि एक ही होती है जिनका एक निश्चय नहीं है ऐसे मनुष्यों की बुद्धियां अनन्त और बहुत शाखाओं वाली ही होती है !
हे पृथानन्दन जो कामनाओं में तन्मय हो रहे हैं स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले हैं वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों में प्रीति रखने वाले हैं (भोगों के सिवाय ) और कुछ है ही नहीं ऐसा कहने वाले हैं
वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकार की जिस पुष्पित ( दिखाऊ शोभा युक्त ) वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूपी कर्म फल को देने वाली है तथा भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है !
उस पुष्पित वाणी से जिसका अन्तः करण हर लिया गया है अर्थात भोगों की तरफ खींच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त है उन मनुष्यों की परमात्मा में एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं होती !
वेद तीनों गुणों के कार्य का ही वर्णन करने वाले हैं हे अर्जुन तु तीनों गुणों से रहित हो जा राग द्वेषदि द्वन्द्वों से रहित हो जा निरन्तर नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित हो जा योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्म परायण हो जा !
0 Comments