देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट _भाग-२८

 !!३९!! सूत जी कहते हैं_____ परीक्षित के दिये हुए इन्हीं पांच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा !

देवर्षि- नारद -की -भक्ति -से -भेंट _भाग-२८


!!४०!! इसीलिये आत्मकल्याण का मी पुरुष को इन पांचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये धर्मिक राजा प्रजावर्ग के लौकिक नेता और धर्मो पदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये !


!!४१!! राजा परीक्षित ने इसके बाद वृषभ रूप धर्म के तीनों चरण तपस्या शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वी का संवर्धन किया !


!!४२!! वे ही महाराजा परीक्षित इस समय अपने राज सिंहासन पर जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिर ने वन में जाते समय उन्हें दिया था विराजमान हैं !


!!४३!! वे परम यशस्वी सौभाग्य भाजन चक्रवर्ती सम्राट राजर्षि परीक्षित इस समय हस्तिनापुर में कौरव कुलकी राज्य लक्ष्मी से शोभायमान  है !


!!४४!! अभिमन्यु नन्दन राजा परीक्षित वास्तव में ऐसे ही प्रभावशाली है जिनके शासनकाल में आप लोग इस दीर्घकालीन  यज्ञ के लिये दीक्षित हुए हैं !


!!४५!! सूत जी कहते हैं____अद्भुत कर्मा भगवान श्री कृष्ण की कृपा से राजा परीक्षित अपनी माता की कोख में अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल जाने पर भी मरे नहीं !


!!१!! जिस समय ब्राह्मण के शाप से उन्हें डसने के लिये तक्षक आया उस समय वे प्राणनाश के महान भय से भी भयभीत नहीं हुए क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित कर रखा था !


!!२!! उन्होंने सब की आसक्ति छोड़ दी गंडक तट पर जाकर श्री सुकदेव जी से उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवान के स्वरूप को जानकर अपने शरीर को त्याग दिया !


!!३!! जो लोग भगवान श्री कृष्ण की लीला कथा करते रहते हैं उस कथामृत का पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनों के द्वारा उनके चरण कमलों का स्मरण करते रहते हैं उन्हें अन्तकाल में भी मोह नहीं होता !


!!४!! जब तक पृथ्वी पर अभिमन्यु नन्दन महाराज परीक्षित सम्राट रहे तब तक चारों ओर व्याप्त हो  जाने पर भी कलियुग का कुछ भी प्रभाव नहीं था !


!!५!! वैसे तो जिस दिन जिस क्षण श्री कृष्ण ने पृथ्वी का परित्याग किया  उसी समय पृथ्वी में अधर्म का मूल कारण कलियुग आ गया था !


!!६!! भ्रमर के समान सारग्राही  सम्राट परीक्षित कलियुग से कोई द्वेष नहीं रखते थे क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्य कर्म तो संकल्प मात्र से  ही फली भूत हो जाते हैं परन्तु पाप कर्म का फल शरीर से करने पर ही मिलता है संकल्प मात्र से नहीं !


!!७!! यह भेडिये के समान बालकों के प्रति शूर वीर और धीर वीर पुरुषों के लिये बड़ा भीरु है यह प्रमादी  मनुष्यों को अपने वश में करने के लिये ही सदा सावधान रहता है !


!!८!! शौनकादि ऋषियो आप लोगों को मैंने भगवान की कथा से युक्त राजा परीक्षित का पवित्र चरित्र सुनाया आप लोगों ने यही पूछा था !


!!९!! भगवान श्रीकृष्ण कीर्तन करने योग्य बहुत सी लिलाएं करते हैं इसलिये उनके गुण और लीलाओं से सम्बन्ध रखने वाली जितनी भी कथाएं हैं कल्याणकामी  पुरुषों को उन सब का सेवन करना चाहिये


!!१०!! ऋषियों ने कहा_____सौम्य स्वभाव सूत जी आप युग युग जिये; क्योंकि मृत्यु के प्रवाह में पड़े हुए हमलोंगों  को आप भगवान श्री कृष्ण की अमृत मयी उज्जवल कीर्ति का श्रवण कराते हैं !


!!११!! यज्ञ करते-करते उसके धूएं से हम लोगों का शरीर धूमिल हो गया है फिर भी इस कर्म का कोई विश्वास नहीं है इधर आप तो वर्तमान में ही भगवान श्री कृष्ण चंद्र के चरण कमलों का मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं !


!!१२!! भगवान प्रेमी भक्तों के लव मात्र के सत्संग से स्वर्ग एवं मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है !


!!१३!! ऐसा कौन रस मर्मज्ञ होगा जो महापुरुषों के एकमात्र जीवन सर्वस्व श्री कृष्ण की लीला कथाओं से तृप्त हो जाए समस्त प्राकृत गुणों से अतीत भगवान के अचिन्त्य अनन्त कल्याण मय गुणगणों का पार तो ब्रह्मा शंकर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके !


!!१४!! विद्वान आप भगवान को ही अपने जीवन का ध्रवतारा मानते हैं इसलिये आप सत्पुरुषों  के एक मात्र आश्रय भगवान के उदार और विशुद्ध चरित्रों का हम श्रद्धालु  श्रोताओं के लिये विस्तार से वर्णन कीजिये !


!!१५!! भगवान के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित ने 

श्री सुकदेव जी के उपदेश किये हुए जिस ज्ञान से मोक्ष स्वरूप भगवान के चरण कमलों को प्राप्त किया आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित के परम पवित्र उपाख्यान का वर्णन कीजिये क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होगी और भगवत्प्रेम की  अद्भुत योगनिष्ठा का निरूपण किया गया होगा उसमें पद पद पर भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्णन  हुआ होगा भगवान के प्यारे भक्तों को वैसा प्रसंग सुनने में बड़ा रस मिलता है !


!!१६-१७!! सूत जी कहते हैं_____अहो विलोम* जाति में उत्पन्न होने पर भी महात्माओं की सेवा करने के कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया क्योंकि महापुरुषों के साथ बातचीत करने मात्र से ही नीच कुल  में उत्पन्न होने की मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है !


!!१८!! फिर उन लोगों की तो बात ही क्या है जो  सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान का नाम लेते हैं भगवान की शक्ति अनन्त है वे स्वयं अनन्त है वास्तव में उनके गुणों की अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है !


!!१९!! भगवान के गुणों की समता भी जब कोई नहीं कर सकता तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है उनके गुणों की यह विशेषता समझाने के लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मी जी अपने को प्राप्त करने की इच्छा से प्रार्थना करने वाले ब्राह्मादि देवताओं को छोड़कर भगवान के न चाहने पर भी उनके चरण कमलों की रजका ही सेवन करती हैं !


!!२०!! ब्रह्मा जी ने भगवान के चरणों का प्रक्षालन करने के लिये जो जल समर्पित किया था वही उनके चरण नखों से निकलकर गंगा जी के रूप में प्रवाहित हुआ यह जल महादेव जी सहित सारे जगत को पवित्र करता है ऐसी अवस्था में त्रिभुवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त भगवान शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है !


!!२१!! जिनके प्रेम को प्राप्त करके  धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह गेह आदि की दृढ़ आसक्ति को छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस आश्रम को स्वीकार करते हैं जिसमें किसी को कष्ट न पहुंचाना और सब ओर से उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है!


!!२२!! सूर्य के समान प्रकाशमान महात्माओं आप लोगों ने मुझसे जो कुछ पूछा है वह मैं अपनी समझ के अनुसार सुनाता हूं जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं वैसे ही विद्वान लोग भी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्री कृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं !


!!२३!! एक दिन राजा परीक्षित धनुष  लेकर वन में शिकार खेलने गये हुए थे हरिणों के पीछे दौड़ते दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी !


!!२४!! जब कहीं उन्हें कोई जलशय नहीं मिला तब वे पास के ही एक ऋषि के आश्रम में घूस गये उन्होंने देखा कि वहां आंखें बंद करके शान्त भाव से एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं !


!!२५!! इन्द्रिय प्राण मन और बुद्धि के निरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊपर उठ गये थे जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्राह्मरूप तुरीय पद  में वे स्थित थे !


!!२६!! उनका शरीर बिखरी हुई जटाओं से और कृष्ण मृग चर्म से ढका हुआ था राजा परीक्षित ने ऐसी ही अवस्था में उनसे जल मांगा क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था !


!!२७!! जब राजा को वहां बैठने के लिये तिनके का आसन भी न मिला किसी ने उन्हें भूमि पर भी बैठने को न कहा अध्र्य और आदर भरी मीठी बातें तो कहां से मिलती तब अपने को अपमानित सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये !


!!२८!! शौनक जी वे भूख प्यास से छटपटा रहे थे इसलिये एका एक उन्हें ब्राह्मण के प्रति ई ईष्र्य  और क्रोध हो आया उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था !


!!२९!! वहां से लौटते समय उन्होंने क्रोध वंश धनुष की  नोक से एक मरा सांप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये !


!!३०!! उनके मन मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं सो क्या वास्तव में इन्होंने अपनी सारी इन्द्रिय वृत्तियों का निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओं से हमारा क्या प्रयोजन है यों सोचकर इन्होंने झूठ मूठ समाधि का ढोंग रच रखा है !


!!३१!! उन शमीक मुनि का पुत्र बड़ा तेजस्वी था दूसरे ऋषि कुमारों के साथ पास ही खेल रहा था जब उस बालक ने सुना कि राजा ने मेरे पिता के साथ दुर्व्यवहार किया है तब वह इस प्रकार कहने लगा !


!!३२!! ये नरपति कहलाने वाले लोग उच्छिष्ट भोजी कौओं के समान संड मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं ब्राह्मणों के दास होकर भी ये दरवाजे पर पहरा देने वाले कुत्ते के समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं !


!!३३!! ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है उन्हें द्वार पर रहकर रक्षा करनी चाहिये घर में घुसकर स्वामी के बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है !










Post a Comment

0 Comments