देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट _ भाग-२५

 !!१२!! अर्जुन बोले_____ उनके आग्रह से जब मैं स्वर्ग में ही कुछ दिनों तक रह गया तब इन्द्र के साथ समस्त देवताओं ने मेरी इन्हीं गाण्डीव  धारण करने वाली भुजाओं का निवातकवच आदि दैत्यों को मारने के लिये आश्रय लिया महाराज यह सब जिन की महती कृपा का फल था उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण ने मुझे आज ठग लिया !

देवर्षि- नारद- की- भक्ति- से- भेंट _भाग-२५


!!१३!! महाराज कौरवों की सेना भीष्म द्रोण आदि अजेय महामत्स्यों से पूर्ण अपार समुद्र के समान दुस्तर थी परंतु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथ पर सवार हो मैं उसे पार कर गया उन्हीं की सहायता से आपको याद होगा मैंने शत्रुओं से राजा विराट का सारा  गोधन तो वापिस ले ही लिया साथ ही उनके सिरों पर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अग्डो़ के अलक्डा़ रतक छीन लिये थे !


!!१४!! भाई जी कौरवों की सेना भीष्म कर्ण द्रोण शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरों के रथों से शोभायमान थी उसके सामने मेरे आगे आगे चलकर वे अपनी दृष्टि से ही उन महारथी यूथपतियों की आयु मन उत्साह और बलको छीन लिया करते थे !


!!१५!! द्रोणाचार्य भीष्म कर्ण भूरिश्रवा सुशर्मा शल्य जयद्रथ और बाल्हीक आदि वीरों ने मुझ पर अपने कभी न चूकने वाले अस्त्र चलाये थे परंतु जैसे हिरण्यकशिपु  आदि दैत्यों के अस्त्र-शस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लाद का स्पर्श नहीं करते थे वैसे ही उनके शस्त्रा स्त्र मुझे छूतक नहीं सके यह श्री कृष्ण के भुजदण्डों की छात्रछाया में रहने का ही प्रभाव था !


!!१६!! श्रेष्ठ पुरुष संसार से मुक्त होने के लिये जिनके  चरण कमलों का सेवन करते हैं अपने आप तक को दे  डालने वाले उन भगवान को मुझ दुर्बुद्धि से सारथि तक बना डाला अहा जिस  समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथ से उतर कर पृथ्वी पर खड़ा था उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझ पर प्रहार न कर सके क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रभाव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी !


!!१७!! महाराज माधव के उन्मुक्त और मधुर मुसकान से युक्त विनोद भरे एवं हृदय स्पर्शी वचन और उनका मुझे पार्थ अर्जुन सखा कुरुनन्दन आदि कह कर पुकार ना मुझे याद आने पर मेरे हृदय में उथल-पुथल मचा देते है !


!!१८!! सोने  बैठने टहलने और अपने सम्बन्ध में बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करने में हम प्रया: एक साथ रहा करते थे किसी किसी दिन मैं व्यंग्य से उन्हें कह बैठता मित्र तुम तो बड़े सत्यवादी हो उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावता के कारण  जैसे मित्र अपने मित्र का और पिता अपने पुत्र का अपराध सह  लेता है उसी प्रकार मुझ दुर्बुद्धि के अपराधों को सह लिया करते थे। !


!!१९!! महाराज जो मेरे सखा प्रिय मित्र नहीं नहीं मेरे हृदय ही थे उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान से मैं रहित हो गया हूं भगवान की पन्त्रियों को द्वारका से अपने साथ ला रहा था परंतु मार्ग में दुष्ट गोपोंने मुझे एक अबला की भांति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर सका!


!!२०!! वही मेरा गाण्डीव  धनुष है वे ही बाण है वही रथ है वही घोड़े है और वही मैं रथी अर्जुन हूं जिसके  सामने बड़े बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे श्रीकृष्ण के बिना ये सब एक ही क्षण में नहीं के समान सारशून्य हो गये ठीक उसी तरह जैसे भस्म में डाली हुई आहुति कपट भरी सेवा और ऊसर में बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है !


!!२१!! राजन आपने द्वारका वासी अपने जिन सुह्रद सम्बन्धियों की बात पूछी है वे ब्राह्मणों के  शापवश मोह ग्रस्त हो गये और वारुणी मदिरा के पानसे मदोन्मत्त होकर अपरिचितों की भांति आपस में एक दूसरे से भिड़ गये और घूंसो से  मार-पीट करके सब के सब नष्ट हो गये उनमें से केवल चार पांच ही बचे हैं !


!!२२-२३!! वास्तव में यह सर्वशक्तिमान भगवान की ही लीला है कि संसार के प्राणी परस्पर एक दूसरे का पालन पोषण भी करते हैं और एक दूसरे को मार भी डालते हैं !


!!२४!! राजन जिस प्रकार जलचरों में बड़े जन्तु छोटों को बलवान दुर्बलों को एवं बड़े और बलवान भी परस्पर एक दूसरे को खा जाते हैं उसी प्रकार अतिशय  बली और बड़े यदुवंशियों के द्वारा भगवान ने दूसरे राजाओं का संहार कराया तत्पश्चात यदुवंशियों के द्वारा ही एक से दूसरे यदुवंशी का नाश कराके  पुर्णरूप से पृथ्वी का भार उतार दिया !


!!२५-२६!! भगवान श्री कृष्ण ने मुझे जो शिक्षाएं दी थीं वे देश काल और प्रयोजन के अनुरूप तथा हृदय के ताप को शान्त करने वाली थी स्मरण आते ही वे हमारे चित्त का हरण कर लेती हैं !


!!२७!! सूत जी कहते हैं_____इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों का चिंतन करते करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यंत निर्मल और प्रशान्त हो गयी !


!!२८!! उनकी प्रेम मयी भक्ति भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यंत बढ़ गयी भक्ति के वेग ने उनके हृदय को मथ कर उसमें से सारे विकारों को  बाहर निकाल दिया !


!!२९!! उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता ज्ञान पुनः स्मरण हो आया जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिए विस्मृति हो गयी थी !


!!३०!! ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से माया का आवरण भग्ड़ होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी है द्वैत का संशय निवृत्त हो गया सूक्ष्मशरीर भग्ड़ हुआ वे शोक एवं जन्म मृत्यु के चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये !


!!३१!! भगवान के स्व धाम गमन और यदुवंश के संहार का वृत्तान्त सुनकर निश्चल मति युधिष्ठिर ने  स्वर्गारोहण का निश्चय किया !


!!३२!! कुन्ती ने भी अर्जुन के मुख से यदुवंशियों के नाश और भगवान के स्वधाम गमन की बात सुनकर अनन्य भक्ति से अपने हृदय को भगवान श्री कृष्ण में लगा दिया और सदा के लिये इस जन्म मृत्यु रूप संसार से अपना मुंह मोड़ लिया !


!!३३!! भगवान श्री कृष्ण ने लोक दृष्टि में जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार उतारा था उसका वैसे ही परित्याग कर दिया जैसे कोई कांटे से कांटा निकाल कर फिर दोनों को फेंक दें भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान थे !


!!३४!!  जैसे वे नट के समान सत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका त्याग कर देते हैं वैसे ही उन्होंने जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था उसे त्याग भी दिया !


!!३५!! जिनकी मधुर लीलाएं श्रवण करने योग्य है उन भगवान श्री कृष्ण ने जब अपने मनुष्य के से  शरीर से इस पृथ्वी का परित्याग कर दिया उसी दिन विचार हीन लोगों को अधर्म में फंसाने वाला कलियुग आ धम का !


!!३६!! महाराज युधिष्ठिर से कलियुग का फैलना छिपा न रहा उन्होंने देखा देश में नगर में घरों में और प्राणियों में लोभ असत्य छल हिंसा आदि अधर्मों की बढ़ती हो गरी है तब उन्होंने महाप्रस्थान का निश्चय किया !


!!३७!! उन्होंने अपने विनयी पौत्र परीक्षित को जो गुणों में उन्हीं के समान थे समुद्र से घिरी हुए पृथ्वी के सम्राट पद पर हस्तिनापुर में अभिषिक्त किया !


!!३८!! उन्होंने मथुरा में शूरसेनाधिपति के  रूप में अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का अभिषेक किया  इसके बाद समर्थ युधिष्ठिर ने प्रजापत्य यज्ञ करके आहवनीय आदि अग्रियों को अपने में लीन कर दिया अर्थात गृहस्थाश्रम के धर्म से मुक्त होकर उन्होंने सन्यास ग्रहण किया !


!!३९!! युधिष्ठिर ने अपने सब वस्त्राभूषण  आदि वहीं छोड़ दिए एवं ममता और अहंकार से रहित होकर समस्त बंधन काट डाले !


!!४०!! उन्होंने दृढ़ भावना से वाणी को मन में मन को प्राण में प्राण को अपान में और अपान को उसकी क्रिया के साथ मृत्यु में तथा मृत्यु को पञ्च भूतमय शरीर में लीन कर लिया !


!!४१!! इस प्रकार शरीर को मृत्यु रूप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुण में मिला दिया त्रिगुण को मूल प्रकृति में सर्वका रण रूपा प्रकृति को आत्मा में और आत्मा को अविनाशी ब्रह्म में विलीन कर दिया उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह संपूर्ण दृश्य प्रपञ्च  ब्रह्मस्वरूप है !


!!४२!! इसके पश्चात उन्होंने शरीर पर चीर वस्त्र धारण कर लिया अन्न जल का त्याग कर दिया मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये वे अपने रूप को ऐसा दिखाने लगे जैसे कोई जड़ उन्मत्त या पिशाच हो !


!!४३!! फिर वे बिना किसी की बाट देखे तथा बहरे की तरह बिना किसी की बात सुने घर से निकल पड़े ह्रदय में उस परब्रह्म का ध्यान करते हुए जिसको प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता उन्होंने उत्तर दिशा की यात्रा की जिस ओर पहले बड़े-बड़े महात्मा जन जा चुके हैं !


!!४४!! भीमसेन अर्जुन युधिष्ठिर के छोटे भाइयों ने भी देखा कि अब पृथ्वी में सभी लोगों को अधर्म के सहायक कलियुग ने  प्रभावित कर डाला है इसीलिए वे भी श्री कृष्ण चरणों की प्राप्ति का दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाई के पीछे पीछे चल पड़े !


!!४५!! उन्होंने जीवन के सभी लाभ भली-भांति प्राप्त कर लिए थे इसीलिए यह निश्चय करके कि भगवान श्री कृष्ण के चरण कमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं उन्होंने उन्हें हृदय में धारण किया !


!!४६!! पाण्डवों के हृदय में भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों के ध्यान से भक्ति भाव उमड़ आया उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान श्री कृष्ण के उस सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में अनन्य भाव से स्थित हो गई जिसमें निष्पाप पुरुष ही स्थिर हो पाते हैं फलत उन्होंने अपने विशुद्ध अन्तः करण से स्वयं ही वह गति प्राप्त की जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्यों को कभी प्राप्त नहीं हो सकती !






 










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