!!३०!! युधिष्ठिर ने____ उद्विग्रचित्त होकर वही बैठे हुए सञ्जय से पूछा सञ्जय मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहां है !
!!३१!! पुत्र शोक से पीड़ित दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुर जी कहां चले गए ताऊ जी अपने पुत्रों और बन्धु बान्धवों के मारे जाने से दुःखी थे मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूं कहीं मुझसे किसी अपराध की आशक्डा़ करके वे माता गान्धारी सहित गग्डा़ जी में तो नहीं कूद पड़े !
!!३२!! जब हमारे पिता पाण्डु की मृत्यु हो गयी थी और हम लोग नन्हे नन्हे बच्चे थे तब इन्हीं दोनों चाचाओं ने बड़े बड़े दु:खों से हमें बचाया था वे हमपर बड़ा ही प्रेम रखते थे हाय वे यहां से कहां चले गए !
!!३३!! सूत जी कहते हैं_____सञ्जय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न पाकर कृपा और स्नेह की विकलता से अत्यन्त पीड़ित और विरहातुर हो रहे थे वे युधिष्ठिर को कुछ उत्तर न दे सके !
!!३४!! फिर धीरे-धीरे बुद्धि के द्वारा उन्होंने अपने चित्त को स्थिर किया हाथों से आंखों के आंसू पोंछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्र के चरणों का स्मरण करते हुए युधिष्ठिर से कहा !
!!३५!! सञ्जय बोले____कुल नन्दन मुझे आपके दोनों चाचा और गान्धारी के संकल्प का कुछ भी पता नहीं है महाबा हो मुझे तो उन महात्माओं ने ठग लिया !
!!३६!! सञ्जय इस प्रकार कह ही रहे थे कि तुम्बुरु के साथ देवर्षि नारद जी वहां आ पहुंचे महाराज युधिष्ठिर ने भाइयों सहित उठ कर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले !
!!३७!! युधिष्ठिर ने कहा____भगवन मुझे अपने दोनों चाचाओं का पता नहीं लग रहा है न जाने वे दोनों और पुत्र शोक से व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहां से कहां चले गए !
!!३८!! भगवन अपार समुद्र में कर्णधार के समान आप ही हमारे पारदर्शक हैं तब भगवान के परम भक्त भगवन्मय देवर्षि नारद ने कहा !
!!३९!! धर्मराज तुम किसी के लिये शोक मत करो क्योंकि यह सारा जगत ईश्वर के वश में है सारे लोग और लोकपाल विवश होकर ईश्वर की ही आज्ञा का पालन कर रहे हैं वहीं एक प्राणी को दूसरे से मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है !
!!४०!! जैसे बैल बड़ी रस्सी में बंधे और छोटी रस्सी से नथे रहकर अपने स्वामी का भार ढोते हैं उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकार के नामों से वेदरूप रस्सी में बंधकर ईश्वर की ही आज्ञा का अनुसरण करते हैं !
!!४१!! जैसे संसार में खिलाड़ी की इच्छा से ही खिलौनों का संयोग और योग वियोग होता है वैसे ही भगवान की इच्छा से ही मनुष्यों का मिलना बिछुड़ना होता है !
!!४२!! तुम लोगों को जीवरूप से नित्य मानो या देहरूप से अनित्य अथवा जगरूप से अनित्य और चेतन रूप से नित्य अथवा शुद्धब्रह्म रूप में नित्य अनित्य कुछ भी न मानो किसी भी अवस्था में मोहजन्य आसक्ति के अतिरिक्त वे शोक करते योग्य नहीं है !
!!४३!! इसलिये धर्मराज वे दीन दुःखी चाचा चाची असहाय अवस्था में मेरे बिना कैसे रहेंगे इस अज्ञान जन्य मनकी विकलता को छोड़ दो !
!!४४!! यह पाच्ञभौतिक शरीर काल कर्म और गुणों के वश में है अजगर के मुंह में पड़े हुए पुरुष के समान यह पराधीन शरीर दूसरों की रक्षा ही क्या कर सकता है !
!!४५!! हाथ वालों के बिना हाथ वाले चार पैर वाले पशुओं के बिना पैर वाले (तृणादि ) और उन में भी बड़े जीवों के छोटे जीव आहार हैं इस प्रकार एक जीव दूसरे जीव के जिवन का कारण हो रहा है !
!!४६!! इन समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयं प्रकास भगवान जो संपूर्ण आत्माओं के आत्मा है माया के द्वारा अनेकों प्रकार से प्रकट हो रहे हैं तुम केवल उन्हीं को देखो !
!!४७!! महाराज समस्त प्राणियों को जीवन दान देने वाले वे ही भगवान इस समय इस पृथ्वी तल पर देवद्रोहियों का नाश करने के लिए काल रूप से अवतीर्ण हुए हैं !
!!४८!! अब वे देवताओं का कार्य पूरा कर चुके हैं थोड़ा सा काम और शेष है उसी के लिए वे रुके हुए हैं जब तक वे प्रभु यहां है तबतक तमलोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो !
!!४९!! धर्मराज हिमालय के दक्षिण भाग में जहां सप्तर्षियों की प्रसन्नता के लिये गग्डा़ जी ने अलग-अलग सात धाराओं के रूप में अपने को सात भागों में विभक्त कर दिया है जिसे सप्तस्त्रोत कहते हैं वहीं ऋषियों के आश्रम पर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुर के साथ गये हैं !
!!५०-५१!! वहां वे त्रिकाल स्नान और विधि पूर्वक अन्गिहोत्र करते हैं अब उनके चित्त में किसी प्रकार की कामना नहीं है वे केवल जल पीकर शांति चित्त से निवास करते हैं !
!!५२!! आसन जीतकर प्राणों को वश में करके उन्होंने अपनी छहों इंद्रियों को विषयों से लौटा लिया है भगवान की धारणा से उनके तमोगुण , रजोगुण और सत्त्वगुण के मल नष्ट हो चुके हैं !
!!५३!! उन्होंने अहक्ड़ार को बुद्धि के साथ जोड़कर और उसे क्षेत्रज्ञ आत्मा में लीन करके उसे भी महाकाश में घटा काश के सामन सर्वाधिष्ठान ब्रह्म में एक कर दिया उन्होंने अपनी समस्त इंद्रियों और मन को रोककर समस्त विषयों को बाहर से ही लौटा दिया है और माया के गुणों से होने वाले परिणामों को सर्वथा मिटा दिया है समस्त कर्मों का संन्यास करके वे इस समय ठूंठ की तरह स्थित होकर बैठे हुए हैं अतः तुम उनके मार्ग में विन्घरूप मत बनना !
!!५४-५५!! धर्मराज आजसे पांचवें दिन वे अपने शरीर का परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा !
!!५६!! गार्हपत्यादि अग्नियों के द्वारा पर्णकुटी के साथ अपने पति के मृतदेह को जलते देख कर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी भी पति का अनुगमन करती हुई है उसी आग में प्रवेश कर जाएगी !
!!५७!! धर्मराज विदुर अपने भाई का आश्चर्यमय मोक्ष देख कर हर्षित और वियोग देखकर दुःखीत होते हुए वहां से तीर्थ सेवन के लिए चले जाएंगे !
!!५८!! देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरु के साथ स्वर्ग को चले गए धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके उपदेशों को हृदय में धारण करके शोक को त्याग दिया !
!!१९!! सूत जी कहते हैं____स्वजनों से मिलने और पूण्य श्लोक भगवान श्री कृष्ण अब क्या करना चाहते हैं यह जानने के लिए अर्जुन द्वारका गये हुए थे !
!!१!! कई महीने बीत जाने पर भी अर्जुन वहां से लौटकर नहीं आये धर्मराज युधिष्ठिर बड़े भयंकर अपशकुन दीखने लगे !
!!२!! उन्होंने देखा कालकी गति बढ़ी विकट हो गयी है जिस समय जो ऋतु होनी चाहिए उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएं भी उल्टी होती है लोग बड़े क्रोधी लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं अपने जीवन निर्वाह के लिए लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं !
!!३!! सारा व्यवहार कपट से भरा हुआ होता है यहां तक कि मित्रता में भी छल मिला रहता है पिता माता सगे संबंधी भाई और पति पत्नी में भी झगड़ा टंटा रहने लगा है !
!!४!! कलिकाल के आ जाने से लोगों का स्वभाव ही लोभ दम्भ आदि अधर्म से अभिभूत हो गया है और प्रकृति में भी अत्यंत अरिष्ट सूचक अपशकुन होने लगे हैं यह सब देखकर युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा !
!!५!! युधिष्ठिर ने कहा____भीमसेन अर्जुन को हमने द्वारका इसलिए भेजा था कि वह वहां जाकर पुण्यश्लोक भगवान श्री कृष्ण क्या कर रहे हैं इसका पता लगा आये और सम्बन्धियों से मिल भी आये !
!!६!! तब से सात महीने बीत गये; किंतु तुम्हारे छोटे भाई अब तक नहीं लौट रहे हैं मैं ठीक ठीक यह नहीं समझ पाता हूं कि उनके न आने का क्या कारण है !
!!७!! कहीं देवर्षि नारद के द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुंचा है जिसमें भगवान श्री कृष्ण अपने लीला विग्रह का संवरण करना चाहते हैं !
!!८!! उन्हीं भगवान की कृपा से हमें यह संपत्ति राज्य स्त्री प्राण कुल संतान शत्रुओं पर विजय और स्वर्गादि लोकों का अधिकार प्राप्त हुआ है !
!!९!! भीमसेन तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान हो देखो तो सही आकाश में उल्कापातादि पृथ्वी में भूकम्पादि और शरीरों में रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं इनसे इस बातकी सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धि को मोह में डालने वाला कोई उत्पात होने वाला है !
!!१०!! प्यारे भीमसेन मेरी बायी जांघ आंख और भुजा बार-बार फड़क रही है ह्रदय जोर से धड़क रहा है अवश्य ही बहुत जल्दी ही कोई अनिष्ट होने वाला है !
!!११!! देखो यह सियारिन उदय होते हुए सूर्य की ओर मुंह करके रो रही है अरे उसके मुंह से तो आग भी निकल रही है यह कुत्ता बिल्कुल निर्भय सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है !
!!१२!! भीमसेन गौ आदि अच्छे पुश मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं !
!!१३!! यह मृत्यु का दूत पेडुखी उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रात को अपने कर्ण कठोर शब्दों से मेरे मन को कंपाते हुए विश्व को सुना कर देना चाहते हैं !
!!१४!! दिशाएं धुंधली हो गयी है सूर्य और चंद्रमा के चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं यह पृथ्वी पहाड़ों के साथ कांप उठती है बादल बड़े जोर जोर से गरजते हैं और जहां तहां बिजली भी गिरती ही रहती है !
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