!!२१!! राजा परीक्षित ने कहा_____ ऋषियों के ये वचन बड़े ही मधुर गम्भीर सत्य और समता से युक्त थे उन्हें सुनकर राजा परीक्षित ने उन योग युक्त मुनियों का अभिनंदन किया और भगवान के मनोहर चरित्र सुनने की इच्छा से ऋषि यों से प्रार्थना की!
!!२२!! महात्माओ आप सभी सब ओर से यहां पधारे हैं आप सत्यलोक में रहने वाले मूर्तिमान वेदों के समान है आप लोगों का दूसरों पर अनुग्रह करने के अतिरिक्त जो आपका सहज स्वभाव ही है इस लोक या परलोक में और कोई स्वार्थ नहीं है !
!!२३!! विप्रवरो आप लोगों पर पूर्व विश्वास करके मैं अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में यह पूछने योग्य प्रश्न करता हूं आप सभी विद्वान परस्पर विचार करके बतलाइये कि सबके लिये सब अवस्थाओं में और विशेष करके थोड़े ही समय में मरने वाले पुरुषों के लिये अन्त:करण और शरीर से करने योग्य विशुद्ध कर्म कौन सा है !
!!२४!! उसी समय पृथ्वी पर स्वेच्छा से विचरण करते हुए किसी की कोई अपेक्षा न रखने वाले व्यासनन्दन भगवान श्री सुकदेव जी महाराज वहां प्रकट हो गये वे वर्ण अथवा आश्रम के बाह्या चिन्हों से रहित एवं आत्मानुभूति में संतुष्ट थे बच्चों और स्त्रियों ने उन्हें घेर रखा था उनका वेष अवधूत का था !
!!२५!! सोलह वर्ष की अवस्था थी चरण हाथ जंघा भुजाएं कंधे कपोल और अन्य सब अंग अत्यंत सुकुमार थे नेत्र बड़े-बड़े और मनोहर थे नासिका कुछ ऊंची थी कान बराबर थे सुंदर भौंहें थीं इनसे मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा था गला तो मानो सुन्दर शंख ही था !
!!२६!! हंसली ढकी हुई छाती चौड़ी और उभरी हुई नाभि भंवर के समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुंदर त्रिवली से युक्त था लंबी लंबी भुजाएं थी मुख पर घुंघराले बाल बिखरे हुए थे इस दिगम्बर वेष में वे श्रेष्ठ देवता के समान तेजस्वी जान पड़ते थे !
!!२७!! श्याम रंग था चित्त को चुराने वाली भरी जवानी थी वे शरीर की छटा और मधुर मुसकान से स्त्रियों को सदा ही मनोहर जान पड़ते थे यद्यपि उन्होंने अपने तेज को छिपा रखा था फिर भी उनके लक्षण जानने वाले मुनियों ने उन्हें पहचान लिया और वे सब के सब अपने-अपने आसन छोड़कर उनके सम्मान के लिये उठ खड़े हुए !
!!२८!! राजा परीक्षित ने अतिथि रूप से पधारे हुए श्री सुकदेव जी को सिर झुका कर प्रणाम किया और उनकी पूजा की उनके स्वरूप को न जानने वाले बच्चे और स्त्रियां उनकी यह महिमा देखकर वहां से लौट गये सब के द्वारा सम्मानित होकर श्री सुकदेव जी श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए !
!!२९!! ग्रह नक्षत्र और तारों से घिरे हुए चंद्रमा के समान ब्रह्मार्षि देवर्षि और राजर्षियों के समूह से आवृत सुकदेव जी अत्यंत शोभा यमान हुए वास्तव में वे महात्माओं के भी आदरणीय थे !
!!३०!! जब प्रखर बुद्धि श्री सुकदेव जी शान्त भाव से बैठ गये तब भगवान के परम भक्त परीक्षित ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया उसके पश्चात बड़ी मधुर वाणी से उनसे यह पूछा !
!!३१!! परीक्षित ने कहा_____ब्रह्म स्वरूप भगवन आज हम बड़ भागी हुए क्योंकि अपराधी क्षेत्रिय होने पर भी हमें संत समागम का अधिकारी समझा गया आज कृपा पूर्वक अतिथि रूप से पधार कर आपने हमें तीर्थ के तुल्य पवित्र बना दिया !
!!३२!! आप जैसे महात्माओं के स्मरण मात्र से ही गृह स्थों के घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं फिर दर्शन स्पर्श पादप्रक्षालन और आसन दानादि का सुअवसर मिलने पर तो कहना ही क्या है!
!!३३!! महायोगिन जैसे भगवान विष्णु के सामने दैत्य लोग नहीं ठहरते वैसे ही आपकी सन्निधि से बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं !
!!३४!! अवश्य ही पाण्डवों के सुह्रद भगवान श्री कृष्ण मुझ पर अत्यंत प्रसन्न है उन्होंने अपने फुफेरे भाइयों की प्रसन्नता के लिये उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपने पन का व्यवहार किया !
!!३५!! भगवान श्री कृष्ण की कृपा न होती तो आप सरीखे के एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधार कर इस मृत्यु के समय हम जैसे प्राकृत मनुष्यों को क्यों दर्शन देते !
!!३६!! आप योगियों के परम गुरू है इसलिये मैं आपसे परम सिद्धि के स्वरूप और साधन के सम्बन्ध में प्रश्न कर रहा हूं जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है उसको क्या करना चाहिये !
!!३७!! भगवन साथ ही यह भी बतलाइये कि मनुष्य मात्र को क्या करना चाहिये वे किस का श्रवण किसका जप किस का स्मरण और किस का भजन करें तथा किस का त्याग करें !
!!३८!! भगवत्स्व रुप मुनिवर आपका दर्शन अत्यंत दुर्लभ है क्योंकि जितनी देर एक गाय दूही जाती है गृहस्थों के घर पर उतनी देर भी तो आप नहीं ठहरते !
!!३९!! सूत जी कहते हैं_____जब राजा ने बड़ी ही मधुर वाणी में इस प्रकार सम्भाषण एवं प्रश्न किये तब समस्त धर्मों के मर्मज्ञ व्यासनन्दन भगवान श्री सुकदेव जी उनका उत्तर देने लगे !
!!४०!! श्रीशुकदेव जी ने कहा_____परीक्षित तुम्हारा लोकहित के लिये किया हुआ यह प्रश्न बहुत ही उत्तम है मनुष्यों के लिये जितनी भी बातें सुनने स्मरण करने या कीर्तन करने की है उन सब में यह श्रेष्ठ है आत्म ज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न का बड़ा आदर करते हैं !
!!१!! राजेंद्र जो गृहस्थ घर के काम धंधों में उलझे हुए हैं अपने स्वरूप को नहीं जानते उनके लिये हजारों बातें कहने सुनने एवं सोचने करने की रहती है !
!!२!! उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है उनकी रात नींद या स्त्री प्रसंग से कटती है और दिन धन की हाय-हाय या कुटुम्बियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है !
!!३!! संसार में जिन्हें अपना अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है वे शरीर पुत्र स्त्री आदि कुछ नहीं है असत है परंतु जीव उनके मोह में ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देख कर भी चेतता नहीं !
!!४!! इसलिये परीक्षित जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है उसे तो सर्वात्मा सर्व शक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की ही लीलाओं का श्रवण कीर्तन और स्मरण करना चाहिये !
!!५!! मनुष्य जन्म का यही इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो ज्ञान से भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाय कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे !
!!६!! परीक्षित जो निर्गुण स्वरूप में स्थित है एवं विधि निषेध की मर्यादा को लांघ चुके हैं वे बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी प्रय: भगवान के अनन्त कल्याण मय में गुणगणों के वर्णन में रमे रहते है !
!!७!! द्वापर के अन्त में इस भगवद रूप अथवा देवतुल्य श्रीमद् भागवत नाम के महापुराण का अपने पिता श्री कृष्ण द्वैपायन से मैंने अध्ययन किया था !
!!८!! राजर्षे मेरी निर्गुण स्वरूप परमात्मा में पूर्ण निष्ठा है फिर भी भगवान श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं ने बलात मेरे ह्रदय को अपनी ओर आकर्षित कर लिया यही कारण है कि मैंने इस पुराण का अध्ययन किया !
!!९!! तुम भगवान के परम भक्त हो इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाऊंगा जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं उनकी शुद्ध चित्त वृत्ति भगवान श्री कृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम के साथ बहुत शीघ्र लग जाती है !
!!१०!! जो लोग लोक या परलोक की किसी भी वस्तु की इच्छा रखते हैं या इसके विपरीत संसार में दुःख का अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्ष पद को प्राप्त करना चाहते हैं उन साधकों के लिये तथा योग संपन्न सिद्ध ज्ञानियों के लिये भी समस्त शास्त्रों का यही निर्णय है कि वे भगवान के नामों का प्रेम से कीर्तन करें !
!!११!! अपने कल्याण साधन की ओर से असावधान रहने वाले पुरुष की वर्षों लम्बी आयु भी अनजान में ही व्यर्थ बीत जाती है उससे क्या लाभ सावधानी से ज्ञान पूर्वक बितायी हुई घड़ी दो घड़ी भी श्रेष्ठ है क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याण की चेष्टा तो की जा सकती
है !
!!१२!! राजर्षि खटवांग अपनी आयु की समाप्ति का समय जान कर दो घड़ी में ही सब कुछ त्याग कर भगवान के अभय पद को प्राप्त हो गये !
!!१३!! परीक्षित अभी तो तुम्हारे जीवन की अवधि सात दिन की है इस बीच में ही तुम अपने परम कल्याण के लिये जो कुछ करना चाहिये सब कर लो !
!!१४!! मृत्यु का समय आने पर मनुष्य घबराये नहीं उसे चाहिये कि वह वैराग्य के शस्त्र से शरीर और उससे सम्बन्ध रखने वालों के प्रति ममता को काट डाले !
!!१५!! धैर्य के साथ घर से निकलकर पवित्र तीर्थ के जल में स्नान करे और पवित्र तथा एकांत स्थान में विधि पूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय !
!!१६!! तत्पश्चात परम पवित्र अ छ म इन तीन मात्राओं से युक्त प्रणव का मन ही मन जप करे प्राण वायु को वश में करके मन का दमन करे और एक क्षण के लिये भी प्रणव को न भूले !
!!१७!! बुद्धि की सहायता से मन के द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों से हटा लें और कर्म की वासनाओं से चच्ञल हुए मन को विचार के द्वारा रोककर भगवान के मंगलमय रूप में लगाये !
!!१८!! स्थिर चित्त से भगवान के श्रीविग्रह में से किसी एक अंग का ध्यान करें इस प्रकार एक-एक अंग का ध्यान करते करते विषय वासना से रहित मन को पूर्ण रूप से भगवान में ऐसा तल्लीन कर दें कि फिर और किसी विषय का चिन्तन ही न हो वही भगवान विष्णु का परम पद है जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेम रूप आनन्द से भर जाता है !
0 Comments