जानिए कैसे हुई थी भगवान श्री राम की मृत्यु

 जैसा कि हम सभी लोग जानते हैं जो भी इस धरती पर जन्म लिया है  जिसने भी इस मृत्यु लोक में जन्म लिया उसे एक न एक दिन इस शरीर को त्यागना ही है और प्रकृति का इसी नियम का पालन करते हुए जब जब भगवान विष्णु ने मनुष्य रूप में अवतार लिया तब तब उन्हें भी मनुष्य रूपी शरीर का उन्हें भी त्याग करना पड़ा

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आज हम इस आर्टिकल में भगवान विष्णु राम अवतार से जुड़े उस कथा के बारे में बताने वाला हूं जिसका वर्णन रामायण में भी नहीं है अर्थात आज मैं आपको बताऊंगा भगवान श्री राम ने किस तरफ से मृत्यु लोग को त्यागा साथी हम आपको यह भी बताएंगे कि माता सीता ने जब धरती को त्यागा था तो प्रभु श्री राम कितने वर्ष तक पृथ्वी लोक पर रहे थे

प्रभु श्रीराम के देख त्यागने से जुड़े प्रसंग का वर्णन पद्म पुराण मैं पढ़ने को मिलता है पद्म पुराण उत्तराखंड कथा के अनुसार जब माता सीता धरती में समा गई तो प्रभु श्री रामचंद्र सहित सारे परिवार के सदस्य शोक में डूब गए और लव कुश के साथ वापस अयोध्या के राज महल लौट आए
फिर कुछ समय बाद देवी सीता के शोक श्रीराम के तीनों माताओं का देहांत हो गया और फिर सभी अपने पति दशरथ के पास स्वर्ग लोग चले गए देवी सीता और माताओं के चले जाने के बाद प्रभु श्री राम कठोर ब्रम्हचर्य धारण करते हुए लगभग 11000 वर्ष तक अयोध्या पर राज करते रहे उधर ब्रह्म लोक में ब्रह्म देव को जब यह ज्ञात हुआ
भगवान विष्णु जो इस समय राम अवतार के रूप में धरती लोक पर निवास कर रहे हैं उनका समय पूरा होने वाला है और उन्होंने कालदेव को बुलाया और उनसे कहा कि हे कालदेव तुम्हें तत्काल धरती लोग जाकर प्रभु  विष्णु को इस समय राम अवतार के रूप में अयोध्या नगरी में निवास कर रहे हैं उन्हें यह संदेश देना होगा की धरती लोक पर उनका समय पूर्ण होने वाला है और अब उन्हें अपने धाम अर्थात वैकुंठ धाम वापस आना होगा
ब्रह्मा जी की बात सुनकर कालदेव बोले हे परमपिता आपकी आज्ञा का पालन होगा मैं इसी समय धरती लोग जाकर प्रभु श्री हरि को यह संदेश कह देता हूं फिर कल देव ने ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और धरती लोग के लिए निकल पड़े धरती लोग पहुंच कर काल देव ने एक वृद्ध संत का रूप लिया फिर लोगों से पूछते हुए वह अयोध्या राज महल द्वार पर पहुंचे और सैनिकों से कहा मुझे अयोध्या नरेश श्री रामचंद्र से मिलना है
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फिर सैनिकों ने जब यह बात राम जी को जाकर बताइए तो प्रभु राम बोले जाओ और उन्हें सम्मान के साथ मेरे पास लेकर आओ प्रभु की आज्ञा पाते ही सैनिक द्वार पर खड़े उस वृद्ध संत को उनके पास लेकर आ गए यह देख श्री राम ने उन्हें प्रणाम किया और फिर उन्हें आसन पर बिठाया जिस कच्छ में यह सब हो रहा था उस समय वहां पर लक्ष्मण जी भी उपस्थित थे रामचंद्र जी ने जब उन्हें वृद्ध संत से पूछा कि हे ब्राम्हण कृपया कर यह बताइए कि मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूं
यह सुन संत रूपी कालदेव बोले हे राम हमारी और आपकी बातें अकेले में ही संभव है इसीलिए अपने भाई लक्ष्मण को यहां से जाने की आज्ञा दें साथी यह वचन भी दे दीजिए कि हम दोनों के बीच की वार्तालाप जो कोई भी सुनेगा या फिर उसमें बाधा डालेगा उसे आप मृत्युदंड देंगे
संत की बातें सुनकर प्रभु बोले ऐसा ही होगा और फिर उन्होंने लक्ष्मण को उस कक्ष से बाहर जाने को कहा साथ ही यह आदेश दिया कि वह कक्ष के दरवाजे पर पहरा दे इसके बाद लक्ष्मण की अपने बड़े भाई की आज्ञा का पालन करते हुए उस कक्ष से बाहर निकल आए कक्ष के दरवाजे को बंद कर पहरा देने लगे
उधर लक्ष्मण जी के बाहर निकलते ही वह वृद्ध संत अपने वास्तविक रूप से आ गए और प्रभु श्री राम को प्रणाम करते हुए बोले हे तीनों लोकों के स्वामी सर्वप्रथम मेरा प्रणाम स्वीकार करें प्रभु आपके पास मुझे परम पिता ब्रह्मा जी ने यह कहने को भेजा है
आपने जिस कार्य हेतु मनुष्य रूप में अवतार लिया था वह कार्य पूर्ण हो चुका है और इस अवतार में आपने अपने लिए कितनी आयु निश्चित की थी वह भी पूरी हो गई है अतः वह समय आ गया है कि आप अपने परमधाम लौट जाए आपकी ऐसा करने से सारे देवता गण भी निश्चित हो जाएंगे
कालदेव की बातें सुनकर प्रभु श्रीराम मुस्कुराते हुए बोले हे महाकाल मैं जानता हूं मेरी ही इच्छा से आप यहां पधारे हैं मैं स्वयं ही अपने बैकुंठधाम लौटना चाहूंगा आप यह संदेश श्री ब्रह्मा जी तक पहुंचा सकते हैं इधर जब भगवान राम और कालदेव के बीच सारी बातें हो रही थी उसी समय महाशय दुर्वासा का कक्ष में आगमन हुआ
महा श्री दुर्वासा को आया देख लक्ष्मण जी ने उन्हें प्रणाम करते हुए बोले हैं महा ऋषि में दशरथ पुत्र लक्ष्मण हूं बताइए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं तब महा श्री दुर्वासा बोले हे दशरथ नंदन तुम्हारा कल्याण हो मुझे अयोध्या नरेश श्री रामचंद्र जी से तत्काल ही मिलना है उन्हें जाकर इस बात की सूचना दो दुर्वासा की बातें सुनकर लक्ष्मण जी बोले
हे भगवान इस क्षण आपका अयोध्या नरेश से मिलना असंभव है यदि मेरे लायक कोई सेवा होगा तो मुझे आज्ञा दें मैं तत्काल ही आपका कार्य पूरा कर दूंगा लक्ष्मण जी की बातें सुनकर महा श्री दुर्वासा क्रोधित हो गए और भोले मूर्ख मैंने कहा ना इसी समय श्री रामचंद्र जी से मिलना है मुझे उनसे ही काम है इसीलिए तुम बस इतनी सेवा करो कि तत्काल हमारे आने की सूचना श्री रामचंद्र जी को दे दो
परंतु इस बार भी श्री लक्ष्मण जी ने क्षमा मांगते हुए कहा यह हे ब्राह्मण इस समय रघुनाथ जी किसी आवश्यक कार्य में व्यस्त हैं इसीलिए आपको कुछ देर प्रतीक्षा करनी होगी यह सुनकर श्री ऋषि दुर्वासा का क्रोध और बढ़ गया और वह गरजते हुए बोले अरे मूर्ख तुम मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहते हो क्या तुम मेरी शक्ति नहीं जानते अगर मैं क्रोध श्राप दे दो तो रघुकुल सहित पूरी अयोध्या तत्काल जलकर भस्म हो जाएगी
यह सुनकर लक्ष्मण घबरा गए और दोनों हाथ जोड़ते हुए बोली नहीं मुनिवर ऐसा मत कीजिए और फिर मन ही मन सोचने लगे अगर केवल मेरी मृत्यु से अयोध्या बच सकती है तो यही सही इसके बाद लक्ष्मण जी बोले मुनिवर क्रोधित ना हो मैं आपकी शक्ति को भलीभांति जानता हूं मैं तत्काल रघुनाथ जी को आपके आने की सूचना देता हूं इतना कहकर लक्ष्मण जी श्री राम के कक्ष में चले गए और प्रभु श्रीराम से बोले महाराज द्वार पर महर्षि दुर्वासा पधारे हैं और इसी क्षण आप का दर्शन करना चाहते हैं
उधर लक्ष्मण जी को में आया देखकर कालदेव अंतर्ध्यान हो गए उसके बाद प्रभु श्री राम लक्ष्मण जी से बोले लक्ष्मण तुमने यह क्या कर दिया तुम मुझे सबसे प्रिय हो लेकिन अब मुझे अपने वचनों का मान रखते हुए तुम्हें मृत्यु दंड देना होगा अपने बड़े भाई श्री राम को चिंतित देखकर लक्ष्मण बोले भैया मैं विवश था
क्योंकि महर्षि दुर्वासा अपने श्राप से अयोध्या को भस्म करना चाहते थे इसीलिए मैंने निश्चय किया अगर मेरी मृत्यु से अयोध्या बच सकती है तो वह सही है इसीलिए मैंने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया जिसके लिए मैं भैया क्षमा चाहता हूं फिर श्री राम लक्ष्मण से बोले जाकर महर्षि दुर्वासा को आदर सहित अंदर लेकर आओ फिर महर्षि दुर्वासा और श्री राम के बीच कुछ देर बातें हुई और फिर जब दुर्वासा राज महल से चले गए
तब श्री राम ने अपने सभासदों को बुलाया और अपने दुविधा के बारे में बताया और फिर कुछ क्षण विचार करने के बाद सभासदों ने कहा महाराज आप राजकुमार लक्ष्मण का परित्याग कर दीजिए अथवा देश से निकाल दें क्योंकि विद्वानों का मानना है की परित्याग करना अथवा देश से निकाल देना मृत्युदंड के समान ही है तब प्रभु श्री राम ने भारी मन से लक्ष्मण को देश से निकल जाने को कहा
उधर लक्ष्मण को देश निकाला देने के बाद पूरे अयोध्या में फैल गई अयोध्यावासी आपस में कई तरह की बातें करने लगे किंतु लक्ष्मण अपने भ्राता के वचनों मान रखने के लिए राज्य से बाहर जाने के बजाए सरयू नदी मैं जल समाधि ले ली और अपने वास्तविक रूप अर्थात शेषनाग के रूप में आकर परमधाम को चले गए
उधर जब इस बात का पता प्रभु श्री राम को चला तो वह दुखी रहने लगे और मन ही मन सोचने लगे कि पहले मेरे प्रिय सीता मुझे छोड़ कर चली गई और अब मेरा सबसे प्रिय भाई भी मुझे छोड़कर चला गया इसीलिए  मुझे भी अब अपने धाम को लौट जाना चाहिए
उसके बाद उन्होंने अपने पुत्र लव कुश को कुश को कुशावती और लव को द्वार वती राज्य का राजा बना दीया और स्वयं के जाने की बात लोगों को बतलाई उस समय भगवान श्री राम के अभिप्राय को जानकर विभीषण सुग्रीव जामवंत हनुमान जी सहित सारे वानर अयोध्या आ  गए और श्री राम के साथ वैकुंठ जाने की जिद करने लगे
तब श्री राम हनुमान जी से बोले हनुमान  तुम मेरे साथ बैकुंठ नहीं जा सकते क्योंकि तुम्हें तो सृष्टि के अंत तक मेरे नाम का महत्व लोगों को बताना है और जामवंत जी आपको भी द्वापर युग तक इस धरती  पर रहना होगा और जब मैं द्वापर में श्री कृष्ण के नाम से अवतार लूंगा और तुम से युद्ध करूंगा तभी तुम्हें मुक्ति मिल सकती है
उधर जब यह बात अयोध्या वासियों को पता चली तो वे आंखों में आंसू लिए प्रभु राम से अपने साथ ले चलने की विनती करने लगे भक्तों के मन में अपने लिए इतना प्रेम देखकर प्रभु राम के आंखों में भी आंसू भर आए और उन्होंने सभी की विनती स्वीकार कर ली
और फिर अगली सुबह श्री राम ने अयोध्या के नागरिकों के साथ सरयू नदी की ओर चल पड़े सरयू नदी के तट पर पहुंचकर श्री राम जल के अंदर देह त्याग दिया  और फिर विष्णु रूप में प्रकट होकर सरयू तट पर खड़े नागरिकों को आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए


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